गुरुवार, 31 मार्च 2016

''बोले बिहँसि महेस तब , ज्ञानी मूढ़ न कोय ।


  आज 'मूर्ख दिवस 'है। इस मूर्ख दिवस पर सभी 'मूर्खानंदों को हार्दिक शुभकामनाएँ। आम तौर पर कोई भी अपने आपको मूर्ख कहलाना  करता। किन्तु  यह कटु सत्य है कि इस संसार में कोई भी चेतन प्राणी नहीं जो स्वतंत्र  या निरपेक्ष रूप से ज्ञानी  अथवा अज्ञानी हो !सभी ने   भरम पाल रखा है कि वे  ज्ञानी हैं । कुछ  तो  बड़े  महाज्ञानी  हैं।  कुछ साक्षात् ' वर्णानाम अर्थ छन्दानाम,रसानाम छन्दसामपि 'ही हैं । लेकिन  ऍतद द्वारा सभी   को सूचित किया जाता है कि अपना -अपना  भरम कमसे कम आज एक दिन के लिए त्याग दें। यही इस मूर्ख  दिवस की सार्थकता हो सकती है। वैसे भी  महान संत और भक्त कवि  गोस्वामी तुलसी दास बाबा अपने  ग्रन्थ 'रामचरित मानस' में  लिख  गए हैं :-

''बोले बिहँसि  महेस तब , ज्ञानी  मूढ़  न  कोय ।

जेहिं जस रघुपति करहिं जब ,सो तस तेहिं छन होय।। ''


अर्थात :- शंकर जी कहते हैं ! हे पार्वती सुनो ! इस  बृह्मांड में  न तो कोई ग्यानी है और न ही कोई मूर्ख है , [रघुपति] भगवान की जब जैसी इच्छा होती है ,तब वह प्रत्येक  प्राणी को वैसा बना  देते हैं।

भावार्थ :- कोई भी इस  भ्रम  में न रहे  कि वह सर्वकालिक ज्ञानी है ,या  सर्वकालिक मंदमति है। वास्तव में मष्तिष्क रुपी कम्प्यूटर में  जब ज्ञानेन्द्रियों  द्वारा  पृकृति की घटनाओं की  सकारात्मक और  वास्तविक छवि प्रेषित की जाती है तब  आउट पुट के रूप में जो 'सर्वजन हिताय' के ज्ञान और विवेक का उद्दीपन प्रकट होता है तब  हम ग्यानी होते हैं। जब हम  झूंठ ,छल,कपट और स्वार्थ के वशीभूत होकर मष्तिष्क को असत्य आचरण का इनपुट देते हैं तो परिणाम में हमें हमारी दयनीय मूर्खता का पिटारा प्राप्त होता है। यह ज्ञान और अज्ञान का बोध निरंतर अपरिवर्तनशील है। वास्तव में  परफेक्ट ग्यानी कोई नहीं होता। एक ही व्यक्ति  कभी सापेक्ष ज्ञानी हो जाता है और  कभी सापेक्ष मूर्ख हो सकता है । देश काल परिस्थिति  या  काल कर्म स्वभाव गुण के वशीभूत  कुछ लोग सज्जन और विद्वान होते हैं। जबकि नकारात्मक और  विपरीत  स्वभाव  वाले मनुष्य   बहुत शातिर और धूर्त  होते हैं।  जो ओरों को ठगते हैं ,ओरों को मूर्ख समझकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं ,वे ग्यानी नहीं बल्कि  चालाक' होते हैं।  झूंठ - कपट पर आधारित जीवन जीने वाला या आपराधिक- सामाजिक  परिवेश का  कोई भी शख्स  आत्मतुष्टि प्राप्त नहीं कर सकता। वेशक 'रत्नाकर' से बाल्मीकि हो जाने पर वह भी ज्ञान और विवेक से प्रकाशित हो सकता। क्योंकि  ज्ञान तो  मानवीय मूल्यों का   प्रकाशक है। सभी सुख सम्पदा का हेतु है। जबकि अज्ञान केवल  अन्धकार का सूचक है और समस्त दुखों  का हेतु है। 

श्रीराम तिवारी  


 \