रविवार, 23 अक्तूबर 2016

खबर है की प्रधानमंत्री श्री मोदीजी ने कालेधन वालोंको अभी तक दी जा रही ४५% हर्जाने के साथ कालाधन- सफ़ेद करने वाली स्कीम  बन्द करने का निश्चय किया है। उन्होंने आइंदा कालेधन वालों के खिलाफ 'सर्जिकल स्ट्राइक 'का मंसूबा तय किया है। यदि वे इसमें कामयाब होते हैं तो यह बाकई भारतीय इतिहास में 'पहली बार' होगा। बड़े-बड़े भृस्टाचारियों पर अंकुश लगेगा तो चिन्दीचोर- रिश्वतखोर भी अपने आप लाइन पर आ जायेंगे। इससे देश का खजाना भरेगा और कुछ हद तक देश की जनता को भी 'सुशासन और विकास' का लाभ मिलेगा। तब शायद कुछ 'अच्छे दिन ' भी आ सकते हैं। मोदी जी को भी 'जुमलेबाजी' के आरोप से मुक्ति मिल सकती है। लेकिन यह सब तभी सम्भव है जब वे यह करके दिखाएँ। वरना तो  बिहार के चुनाव में भी 'सवा लाख करोड़' घोषित करके वे शायद भूल चुके हैं।

वे अपनी बल्दियत नहीं बदल सकते !

मुलायमसिंह यादव न तो समाजवादी हैं न ही वे लोहियावादी हैं। वे पिछड़ावर्ग के हितेषी भी नहीं हैं, उन्हें किंचित  'परिवारवादी' भी नहीं कहा जा सकता । दसरल वे उत्तरप्रदेश में क्षेत्रीयतावादी 'नकारात्मक राजनीति' की खुरचन मात्र  हैं। उन्हें सत्ता में लाने का श्रेय विश्वनाथ प्रतापसिंह और लाल कृष्ण आडवाणी को जाता है। वीपीसिंह ने नेता बनाया और आडवाणी जी की रथयात्रा ने उन्हें परवान चढ़ाया। भाई-भतीजावाद,परिवारवाद,भृष्टाचारऔर सैफई- ,गुंडई , जातिवाद और सम्प्रदायवाद उनके चुनाव जिताऊ अश्त्र-शस्त्र रहे हैं। भाई शिवपालयादव ,जिगरी दोस्त अमरसिंह और मुख्तार अंसारी जैसे लोग उनके पुराने राजदार रहे हैं। अब जबकि मुलायम कुनबा आपसी जूतम पैजार में व्यस्त है, तो यक्ष प्रश्न यह है कि मुलायम सिंह यादव की  भृष्ट विरासत पर उनका 'सुपुत्र' अखिलेश यादव ईमानदारी की बुलन्द एवम भव्य ईमारत खड़ी कैसे कर सकता है ? मेरा ख्याल है -नहीं ! क्योंकि अखिलेश यादव को कदाचित राजनैतिक पार्टी निर्माण और उसका संगठन खड़ा करने का अनुभव नहीं है। सपा के निर्माण में भी अखिलेश का कोई योगदान नहीं है। वेशक  वे यदि अपने पिता के संजाल से मुक्त होकर चन्द्र बाबु नायडू या जय ललिता की राह पकडते हैं ,तो उनके लिए संभावनाओं के द्वार खुल सकते  हैं। लेकिन इसमें वक्त लगेगा। क्योंकि यूपी की जनता शायद ही सपा या मुलायम परिवार पर अभी मेहरवान होगी !मुलायमसिंह का वंशज होना जितना लाभप्रद है ,उतना ही कष्टप्रद भी अवश्य होगा और वे अपनी बल्दियत बदल भी नहीं सकते !  

भारतीय काल गणना -अनुसार द्वापर युग की महाभारत इत्यादि घटनाओं और उस युग में सम्पन्न द्वारका के तथाकथित 'यादवी महासंग्राम' को मैं अबतक 'मिथ' ही समझता रहा ,किन्तु उत्तरप्रदेश में 'मुलायम-परिवार' का हश्र देखकर यकीन होने लगा है कि द्वापर में अवश्य ही 'यादवी महासंग्राम' हुआ होगा। मुलायम परिवार की पार्टी 'सपा' का समाजवाद से कोई लेना-देना नहीं है। खुद मुलायमसिंह यादव और उनके अनुज शिवपाल यादव -कहीं से भी समाजवादी नहीं हैं। मुलायम के सुपुत्र अखिलेश यादव अवश्य पढ़े-लिखे और सुलझे हुए युवा नेता लगते हैं, यदि वे अपने पिता को छोड़कर अलग पार्टी बनालें और उत्तरप्रदेश की जनता उन्हें एक बार फिर भरपूर समर्थन दे ,तो शायद अखिलेश यादव यूपी का और बेहतर नेतत्व और विकास कर सकते हैं। श्रीराम तिवारी

शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

'हलाला 'कानून और 'तीन तलाक' जैसे बर्बर कानूनको त्यागने में दिक्कत क्या है ?


 गुस्से में तीन बार तलाक कहने और उन शब्दों को 'ब्रह्म वाक्य' मान लेने से मुस्लिम समाज में कई बार विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कई बार 'तीन तलाक' कहने -सुनने वालों का दाम्पत्य जीवन बर्बाद होते देखा गयाहै। हर सूरत में  मुस्लिम औरतों को ही तकलीफ उठानी पड़ती है। ऐंसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं।

प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री स्वर्गीय मीनाकुमारी को उनके 'शौहर' जनाब कमाल अमरोही साहब ने गुस्से में 'तीन तलाक' दे दिया था । कुछ समय  बाद पछतावा होने पर कमाल अमरोही ने मीनाकुमारी जी से पुनः 'निकाह' का इरादा व्यक्त किया। मीनाकुमारी भी राजी थीं, किन्तु कमाल अमरोही और मीनाकुमारी की राह में तब   'हलाला कानून' आड़े आ गया ।

'हलाला क़ानून' के अनुसार मीनाकुमारी को बड़ी विचित्र और शर्मनाक स्थिति से गुजरना पड़ा ।उन्हें अमरोही साहब से दोबारा निकाह करने से पहले किसी और मर्द से निकाह करना पड़ा। हलाला के अनुसार उन्हें उस नए शौहर के साथ 'हमबिस्तर' होकर 'इद्दत' का प्रमाण पेश करना पड़ा। इद्दत याने 'मासिक' आने के बाद उन्हें अपने उस नए[!]  शौहर से  'तीन तलाक' का 'अनुमोदन' भी लेना पड़ा ! इतनी शर्मनाक मशक्कत के बाद मीनाकुमारी और कमाल अमरोही का  फिरसे 'निकाह' हो सका !

 हिन्दू समाज में भी स्त्री विरोधी ढेरों कुरीतियाँ  रहीं हैं ,किन्तु उन कुरीतियों से लड़ने के लिए 'हिन्दू समाज' का प्रगतिशील तबका समय-समय पर प्रयास करता रहा है। हिन्दू समाज में बाल विवाह,सती प्रथा और  'विधवाओं की घर निकासी'- काशीवास या मथुरावास जैसे अनेक जघन्य अनैतिक रीति-रिवाज विद्यमान रहे हैं । इनमें से कुछ कुरीतियाँ अभी भी यथावत हैं। किन्तु १८वीं शताब्दी में राजा राममोहन राय और ततकालीन अंग्रेज गवर्नर के प्रयासों से 'सती प्रथा' को समाप्त करने में हिन्दू समाज को  पर्याप्त सफलता मिली है। हालाँकि उसके बाद भी दबे-छुपे तौर पर इस जघन्य प्रथा को कहीं-कहीं प्रश्रय दिया जाता रहा है ,किन्तु  हिन्दू समाज ने और भारत के संविधान निर्माताओं ने इसे अस्वीकार कर दिया ।

जब दुनिया के अधिकांस प्रगतिशील मुस्लिम समाज ने 'तीन तलाक' को अस्वीकार कर दिया है , तब भारतीय मुस्लिम समाज को  इस नारी विरोधी 'हलाला 'कानून और 'तीन तलाक' जैसे बर्बर कानूनको त्यागने में दिक्कत क्या है ? सदियों उपरान्त इस आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी ,हम हर गई गुजरी परम्परा को क्यों ढोते रहें ?बर्बर और समाज विरोधी कुरीतियों की शिद्दत से मुखालफत क्यों नहीं करनी चाहिए ? श्रीराम तिवारी !

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016



मनुष्य की आत्मिक प्रवृत्ति और मानसिक सोच उसके विचारों में परिलक्षित होती है। यदि किसी मनुष्य की सोच में तार्किकता ,वैज्ञानिकता ,प्रगतिशीलता , क्रांतिकारी- प्रतिबद्धता का सकारात्मक समावेश है तो निसंदेह उसके विचार भी भव्य और सर्वजनहिताय ही  होंगे !जबकि क्रांतिकारी विचारधारा विहीन साधारण मनुष्य निहित स्वार्थी होकर पशुवत आचरण के लिए अभिसप्त हुआ करता है। ऐसा मनुष्य साहित्य ,कला ,संगीत और जन संघर्षों से कोसों दूर रहता है।     

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

सब कुछ पहली बार से ही शुरूं हुआ है !


इन दिनों भारत में एक जुमला  ज्यादा ही चलन में है। 'ऐसा पहली बार हुआ '! इस जुमले को  जुमलेबाज ही ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। यह प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत है कि राजनीति में यदि साम्प्रदयिक और  कूढ़मगज लोगों को यदि सत्ता का स्वाद चखने को मिल जाए तो वे एक घातक मानसिक बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं। उन्हें जिस  विषय का ज्ञान ही नहीं होता  वे उस विषय में भी बढ़चढ़कर अपनी  ऊलजलूल प्रतिक्रियाएँ देनेके लिए उतावले रहते हैं.!भारत में जबसे मोदी सरकार सत्ता में आई है तबसे सोशल मीडियामें और राजनैतिक गलियारों में एक वाक्य बहुश्रुत है कि  '' ऐसा पहली बार  हुआ है ''! जैसेकि वे कह रहे हैं कि  आपरेशन सर्जिकल स्ट्राइक पहली बार हुआ है, हमारी फ़ौज ने पहली बार पाकिस्तान में घुसकर उसे मारा है।  या कि कोई प्रधानमंत्री पहली बार  लखनऊ के दशहरा समारोह में शामिल हुआ है ,या पहली बार किसी प्रधान मंत्री ने यूएनओ में हिंदी में भाषण दिया । इस तरह की शाब्दिक कलाबाजी केवल आत्मप्रशंसा में ही संभवहै। वे भूल जातेहैं कि आदिमकाल से सब कुछ पहली बार से ही शुरूं हुआ है !

 सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी जानता है कि हरेक की जिंदगी में जो कुछ होता है वह पहली बार अवश्य होता है। जब कोई स्त्री माँ बनती है तो उसके जीवन में दूसरी बार यह हो न हो लेकिन 'पहली बार' यह अवश्य होता है। जब कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है ,जब कोई व्यक्ति धोखा खाता है ,जब किसी को कोई सफलता मिलती है ,जब कोई हारता है और जब कोई जीत हासिल होती है तो यह सिलसिला पहली बार से ही आगे बढ़ता है। 'भारत ने आजादी हासिल की' यह भी तो पहली बार ही हुआ है ,वरना गुलामी तो बार-बार इस मुल्क को डसती रही है। भारत टेस्ट क्रिकेट में इंदौर में पहली बार जीता ,या फलाँ खिलाड़ी ने ओलम्पिक में अमुक खेल में पहली बार गोल्ड मेडल हासिल किया। यह जुमला हर इंसान ,हर समाज और हर राष्ट्र में पहली बार से ही शुरूं होता  है ,यही कुदरत का नियम है। हरेक इंसान पहली बार ही मरता है लेकिन ऐंसा कहा नहीं जाता कि 'फलाँ पहली बार मरा  या अमुक पहली बार मरा ! श्रीराम तिवारी !

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016



''धर्मपत्नी -बीबी -घरवाली इत्यादि संज्ञाओं से संबोधित की जाने वाली हस्ती , किसी भी नेक और आदर्श पुरुष की अर्धांगनी ,उसके लिए मंदिर के प्रसाद की तरह हुआ करती है। भगवान् का प्रसाद कैसा भी हो ,उसे आप चाहें या न चाहें, लेकिन  'शृद्धा,सबूरी और मजबूरी 'के साथ स्वीकार करना ही पड़ता है '',,,,,!