गुरुवार, 22 दिसंबर 2016

आरोप लगाते समय कद का भी ध्यान रखा जाये



राहुल गाँधी ने गुजरात में जाकर आरोप लगाया है कि गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'सहारा समूह' से ५० करोड़की घूस  खाई !  शुक्र है कि 'पीएम' मोदीने कोई घूस नहीं ली ! राहुलने जो आरोप लगाया है उससे भाजपा और मोदी जी की तौहीन हुई है। क्योंकि भाजपा ने विगत तीन साल में लगभग तीन लाख करोड़ नहीं जुटाए तो क्या ख़ाक किया ? राहुल जी देश भर में सिर्फ पचास करोड़ का झुनझुना बजाते फिर रहे हैं। इतने रुपयों में तो मायावती की एक आमसभा भी नहीं हो सकती।इतने रूपये तो ममताके ड्राइवरकी सीटके नीचे निकल आएंगे !  इतनी रकम से तो भाजपा गुजरात की एक सीट का चुनाव भी नहीं जीत सकती। आरोप लगाते समय भाजपा की हैसियत और उसके कद का ध्यान रकह जाना चाहिए ! आखिर दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है उसकी कद्र भी तो कोई चीज है ? इतना बड़ा कुनबा और सिर्फ ५० करोड़ का आरोप ! ये सरासर नाइंसाफी है ! दिल्ली मुबई सूरत गुजरात में तो चायवाला ,भजिएवाला, गोबरवाला भी दस हजार करोड़ से कम नहीं 'हग' रहा है ! दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधान मंत्री ऐसे ही नहीं बन गए मोदी जी !आरोप लगाते समय कद का भी ध्यान रखा जाये !

राहुल गाँधी ने 'सहारा' की जिस सूची का खुलासा किया है उसमें लगभग १०० राजनैतिक पार्टियों का उल्लेख है। ख़ुशी  की बात यह है कि इस सूची में वामपंथ अथवा सीपीएम का नाम नहीं है। चन्दाचोर राजनेताओं और भृष्ट पूँजीवादी पार्टियों को उजागर करने में राहुल गाँधी ने जो सहयोग दिया उसके लिए उन्हें साधुवाद,,! यह बात काबिल ऐ गौर है कि उस सूची में कांग्रेस का भी नाम है ,भले ही उसे कम चन्दा मिला होगा !

राहुल गाँधी के आरोप पर केंद्रीय मंत्री रविशंकरप्रसाद ने कहा है कि पीएम मोदीजी तो 'गंगा मैया' की तरह परम् पवित्र हैं। उनके इस द्विअर्थी सूक्त का भाष्य जरुरी है। एक अर्थ तो सीधा-सीधा है कि मोदीजी उस गंगा की तरह पवित्रहैं जो पुराण अनुसार हजारों साल पहले राजा भगीरथ पृथ्वी पर लायेथे ! लेकिन दूसरा अर्थ वह वास्तविकता दिखा रहा है कि कानपुर , बनारस से लेकर पटना कोलकाता सभी जगह मरे हुए ढोर ,अधजली लाशें , सड़े -गले फूलों का सैलाब - निर्माल्य और गंदगी से 'गंगा मैया' बजबजा रही है। सिर्फ गंगा की ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारत की भी यही तस्वीर है। इस बदरंग तस्वीर से मोदी जी की तुलना रविशंकर प्रसाद ने  की है तो बाकई कहना पड़ेगा कि वे विद्वत्ता के उच्च शिखर पर हैं। उन्हें कोटि-कोटि बधाई !

शनिवार, 17 दिसंबर 2016

नास्तिक -आस्तिक एक ही सिक्के के दो पहलु !

 जिस तरह भारतीय वेदांत दर्शन में सगुन-निर्गुण  की मतभिन्नता और किंचित वस्तुनिष्ठ साम्य भी है  उसी तरह समस्त सभ्य संसारमें आस्तिक-नास्तिक का भेद भी निर्वर्चनीय है।यदि आप आस्तिक हैं तो अच्छी बात है लेकिन मेहरवानी करके अंधश्रद्धा,साम्प्रदायिकता और धार्मिक पाखण्ड से बचें ! यदि आप नास्तिक हैं तो बहुत अच्छी बातहै किन्तु आप सत्य,नैतिकता,संविधान,मानवीय अनुशासन और न्याय के पक्ष का मजबूती से अनुपालन करें !चूँकि आपको यकीनहै कि आप बिना किसी ईश्वरीय सत्ता के सांसारिक चुनौतियों का मुकाबला खुद कर सकते  हैं ,आप महान हैं क्योकि आपको जो कुछ भी करना है सब अपने  मानवीय बुद्धिबल के बूते पर ही करना है।

आस्तिक बनाम नास्तिक का द्वंद और उसकी चर्चा सदियों पुरानी है। पाषाण युग का मुनष्य जब गिरी कन्दराओं में रहता था, तब मूलतः वह न तो नास्तिकथा और न ही वह आस्तिकथा। तब वह अन्य देहधारियों की भाँति सिर्फ थलचर था। जहाँ-जहाँ धरती की जैविक तासीर मनुष्य की जिजीविषा के अनुकूल मिलती गयी ,मानव सभ्यता का वहाँ -वहाँ झंडा लहराने लगा। मनुष्य ने ज्यों ही पैरों पर चलना सीखा और आग का उपयोग सीखा और पहिये का आविष्कार किया त्यों ही उसकी मेधा शक्ति को पंख लग गए। जल्दी ही मनुष्य ने पत्थर के नुकीले हथियार और अन्य प्राणियों को काबू में करने के साधन खोज लिये। आग, पानी,हवा,पेड़-पौधे और पालतू पशुओं की खोज ने मनुष्य को 'नदी-घाटी'सभ्यताओं कीओर गतिशील बना दिया। जहाँ मनुष्य ने कबीलाई समाज में जीना प्रारम्भ किया। यों तो दुनिया भर के समाजों की भाषा,संस्कृति सभ्यता और व्यवस्था के क्रमिक विकास का इतिहास जुदा -जुदा है किन्तु आस्था-अनास्था का द्वंद सभी में एक समान रहा है। भारतीय उपमहाद्वीप में उत्तर वैदिक काल से ही 'वेदमत' और 'लोकमत' का सतत संघर्ष चलता आ रहा है।

ज्ञान क्या है ? अज्ञान क्या है ? ईश्वर क्या है ? ब्रह्म क्या है ? जीव क्या है ? माया क्या है ? दुःख-सुख का कारण क्या है ? सृष्टि कर्ता कौन है ? मनुष्य को किसकी आराधना करनी चाहिए ? वेद को मानने और तदनुसार यज्ञ उपासना करने वाले को आस्तिक क्यों कहा गया ?और वेदविरुद्ध लोकमतावलम्बी  को नास्तिकक्यों कहा गया ?इन प्रश्नों के उत्तर और विपरीत मतों के द्वंदका यह सिलसिला हजारों साल पुराना । आस्तिक मतावलंबियों का धृढ़ विश्वाश है कि अच्छा और सुखी जीवन जीनेके लिए 'आस्तिक'होना जरूरी है। नास्तिक मत का  विश्वाश है कि मनुष्य भी   धरती के अन्य प्राणियों जैसा ही कुदरती सृजन है। जिस तरह पेड़-पौधों,पशुओं,थलचरों,जलचरों,नभचरों और मानव शिशुओं को आस्तिक-नास्तिक से कोई सरोकार नहीं ,उसी तरह 'मनुष्य योनि'को भी इस बात से कोई मतलब नहीं कि आस्तिक क्या है और नास्तिक क्या है ?

पाश्चात्य नास्तिकों और भारतीय चार्वाक दर्शन के अनुयायियों का सवाल जायज है कि  जब मनुष्य के अलावा
हाथी ,कंगारू,ऊंट ,घोडा गधा, गाय बैल भैंस कुत्ता  ,बिल्ली ,शेर ,साँप ,नेवला ,मयूर ,कोयल ,कौआ,तीतर, तोता , गिद्ध -बाज मगरमच्छ,कछुआ और मछली आस्तिक-नास्तिक नहीं होते तो मनुष्य को आस्तिक-नास्तिक के फेर में क्यों पड़ना चाहिए ? चूँकि आस्तिक-नास्तिक का वर्गीकरण मनुष्य के सिद्धांतों-नियमों से संचालित है अतः यह 'ईश्वर' कृत व्यवस्था नहीं है । यदि यह ईश्वरकृत व्यवस्था होती तो,ईश्वर ऐंसा अन्याय नहीं कदापि नहीं करता कि यह सौगात सिर्फ मनुष्य योनि के हवाले कर देता। अति उन्नत सूचना संचार क्रांति से युक्त २१वीं शताब्दी में भी अधिकांस दुनिया स्वाभाविक रूप से नास्तिक ही है। दक्षिण अफ्रीकी कबीलों में और भारत के सुदूरवर्ती क्षेत्रों के आदिवासियों को इससे कोई मतलब नहीं कि आप आस्तिक हैं या नास्तिक !

चार्वाक से भी पहले भारतीय प्राच्य दर्शन श्रंखला में 'नास्तिक दर्शन' का उल्लेख बालमीकि रामायण में मिलता है।
चित्रकूट में जब अनुज भरत की याचना को न मानकर श्रीराम ने ,गुरु वशिष्ठ और माताओं को वापिस विदा किया


आमतौर पर अर्धशिक्षित भारतीय युवावर्ग और खासतौर से धर्म-मजहब का घृणास्पद गटर साहित्य पढ़ने वाले साम्प्रदायिक तत्व और अंधराष्ट्रवादी नेताओं की दूषित भाषणबाजी का नित्य प्रातः सेवन करने वाले कूड़ मगज - मंदमति लोग यह मानते हैं कि कम्युनिस्ट अर्थात वामपंथी तो नास्तिक होते हैं। उनके मतानुसार जिस किसी ने अपने हाथोंमें 'हँसिया हथौड़ा' वाला ' लाल झंडा' उठा लिया समझो वह 'नास्तिक'है। उनकी नजर में यदि किसी ने गलतीसे भी 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगा दिया तो समझो वह 'देशद्रोही' है ! 'ब्रिटिश नेशनल अस्मेबली' में 'बम' और पर्चे फेंकते हुए और बादमें फाँसीके तख्तेसे भी शहीद भगतसिंह एवम उनके साथियों ने नारा लगाया था - 'इंकलाब जिंदाबाद'!मुकद्दमेंबाजी के दौरान  जब 'धर्म बनाम आस्था का सवाल उठा तो शहीद भगतसिंह ने बार-बार कहा 'हमारा मकसद मुल्क की आजादी और उसके पश्चात् सर्वहारा वोल्शेविक क्रांति है,धर्म मजहब के नजरिये से मैं नास्तिक हूँ '! नास्तिक शब्द को इतना सम्मान दुनिया में  कभी कहीं नही मिला।

आजादी के बाद भारत के दक्षिणपंथी धर्मभीरु 'हिंदुत्ववादी' लोग  यह स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि भगतसिंह और उनके साथी वामपंथी' विचारधारा के थे और अपने आपको 'बोल्शेविक' कहते थे ! उन्होंने पूरी शिद्दत से अपने आपको नास्तिक घोषित कियाथा। आजादी के बाद जिनकी रगों में अंगेजों के डीएनए का असर बाकी है, वे लोग 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारेको ही पसन्द नहीं करते। वे भगतसिंह की प्रतिमा पर एक आस्तिक की तरह माल्यार्पण तो करेंगे, किन्तु वे यह स्वीकार नहीं करेंगे कि भगतसिंह 'नास्तिक' थे और वामपंथी कम्युनिस्ट भी थे ! चूँकि इन अमर शहीदों की आराध्य 'भारत माता' थी और उसकी आजादीके लिए उनका त्याग- बलिदान तपस्या थी ,इसलिए वे 'नास्तिक' होते हुए भी राष्ट्रके आराध्य हो गए ! इसी तरह आधुनिक कम्युनिस्टों और वामपंथियों का 'इष्ट' है -सर्वहारा वर्ग को शोषण -उत्पीड़न मुक्त करके एक बेहतर समाज व्यवस्था कायम करना। इसके निमित्त वे जो -जो जन संघर्ष या जनांदोलन करते हैं वह उनकी साधना या तपस्या है। इस महान उद्देश्यमें अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वालों के समक्ष तो ईश्वर भी नतमस्तक होगा ,यदि  वाकई में उसका अस्तित्व है तो !

भारत ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में पतित व्यक्तियों और 'दवंग' समाजों द्वारा यह कुप्रचारित किया जाता रहा है कि कम्युनिस्ट तो नास्तिक होते हैं। पूँजीपतियों के दलाल  सत्ता में बने रहने के लिए बुर्जुवा धर्मभीरुता का स्वांग रचते रहते हैं। वे लोकतंत्र में चुनावी जीत के लिए, राजनीति में धर्म-मजहबका इस्तेमाल करते रहते हैं ! बुर्जुवा वर्ग की इस कारस्तानी में सहयोग के लिए कुछ हद तक वे भी जिम्मेदार हैं जो अपने आपको वामपंथी कहते हैं। वे धर्म-दर्शन और अध्यात्म का ककहरा भी नहीं जानते और तर्कवादी -भौतिकवादी प्रगतिशील बुद्धिजीवी बन बैठे हैं। तार्किकता,वैज्ञानिकता और मार्क्सवादी द्वंदात्मक भौतिकवाद तो मानवता के लिए बेहतरीन वरदान है। किन्तु कुछ 'प्रगतिशील' लोग अपनी विद्वत्ता प्रदर्शन के बहाने धर्म-मजहब -अध्यात्म के मसलों में नाहक अपनी डेढ़ टाँग घुसेड़ते रहते हैं। वे धर्म-मजहब का अनावश्यक मजाक उड़ाते रहते हैं। उनकी इस नादानी से दुष्ट -  साम्प्रदायिक तत्वों को ताकत मिलती है। और 'धर्मभीरु' जनता 'नास्तिक' क्रांतिकारियों की बनिस्पत पाखण्डी 'आस्तिक' साम्प्रदायिक तत्वों को भरपूर समर्थन तथा वोट देती रहती है।

'नास्तिकता' के नाम पर कम्युनिज्म को बदनाम करने वालों को राजनीति में इसलिए बढ़त हासिल है, क्योंकि  भारतकी अधिकांस गरीब जनता अशिक्षित है। आम आदमीको 'धर्म' की 'अफीम' पसन्द है। जनता इस मजहबी अफीम को दुखोंका निवारणकर्ता मानती है। धर्मभीरु जनता को आसानी से  'हिंदुत्व' ईसाइयत अथवा इस्लाम के नाम पर आसानी से ध्रुवीकृत किया जा सकता है। धर्म-मजहब  के ठेकेदार-स्वामियों,बाबाओं , पूँजीपतियों और उनके दलालों ने गठजोड़ करके न केवल कांग्रेस को बल्कि सम्पूर्ण वामपंथी बिरादरी को हासिये पर धकेल दिया है।  जिस देशके घर-घरमें नित्य शंख -घण्टानाद होता हो ,नमाज -ताजियोंके बहाने सड़कों पर क्रूर शक्ति प्रदर्शन होता  हो ,उसदेश की धर्मभीरु जनताको क्या गरज पडी कि किसी बाबा -स्वामी ,मुल्ला -मौलवी और सरकार से पन्गा ले ? इस मानसिकता की वजह से ही न केवल बंगाल में बल्कि सम्पूर्ण भारतमें संघर्षशील सर्वहारा का मेयार सिकुड़ता ही जा रहा है।इसके लिए वामपंथ द्वारा और खास तौर से प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का धर्म-मजहब पर  अतार्किक कटाक्ष और 'नास्तिकता' का ढोंग जिम्मेदार है !

 देश के मेहनतकशों-किसानों,कर्मचारियों और छात्रों के संघर्षों ,जनआन्दोलनों से वामपंथ की ज्यों ही कुछ ताकत बढ़ती है, त्योंही कुछ  स्वयमभू  वामपंथी नेता ,  प्रगतिशील बुद्धिजीवी उस धर्मनिपेक्ष ताकत रुपी शुद्ध दूधमें 'नास्तिकता' का नीबू निचोड़ देते हैं। उनके  प्रमाद से-  भृष्ट ,बेईमान शोषणकारी जातिवादी,सम्प्रदायवादी, पूँजीवादी और क्षेत्रीय दलों को विजयश्री मिल जाया करती है। इस तरह धर्म -मजहब के नाम पर जनता बार-बार ठगी जाती है। संकीर्णतावादी -कठमुल्लावादी लोग सिर्फ धर्म-मजहब की कतारों में ही नहीं हैं बल्कि वे वामपंथ और 'कम्युनिस्ज्म' की कतारोंमें भी हैं। ऐंसे लोग जनताके सवालों और आर्थिक-सामाजिक मुद्दों पर अच्छी पकड़ रखते हैं ,किन्तु  धर्म -मजहब के मामलों में वे अतीत के'नास्तिकवादी ' खूँटे से बंधे हुए हैं। इस २१वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में भी वे  १८वीं सदी के पाश्चात्य सिद्धांतों से  चिपके हुए हैं।

 जो प्रगतिशील विचारक या अध्येता, अरब-यूरोप के मजहब-रिलिजन शब्द का अनुवाद संस्कृत के 'धर्म' में देखते हैं, वे  फ़्रांस,जर्मनी,चीन ,क्यूबा , लातिनी अमेरिकी- सुशिक्षित मेहनतकश आवाम और भारतकी अशिक्षित अपढ़ 'धर्मप्राण'जनता के  फर्क को नहीं समझते। सर्वहारा क्रांति की केवल एक ही ओषधि है।वोल्शेविक या माओवादी चिंतन। इस चिंतन और सोच से की ताकत से ही एक यूनिफार्म समाज में बदलाव या क्रांति को स्वीकृत किया जा सकता है। किन्तु जाति -धर्म के नाम पर बिखरे समाज और सदियों तक गुलाम रहे धर्मभीरु भारत के सर्वहारावर्ग से जब कोई कहता है कि कम्युनिस्ट तो  'नास्तिक' होते हैं ,तो हरावल दस्तोंका केडर भी उनका साथ छोड़ देता है। विगत १० सालों में  पश्चिम बंगाल में यही हुआ है। इसके लिए वे विचारक ,बुद्धिजीवी और चिंतक जिम्मेदार हैं जो अपने आपको बड़े से बड़ा कम्युनिस्ट मानते रहे हैं !

कुछ प्रगतिशील बुद्धिजीवी लेखक -विचारक -धरना आंदोलन और सड़कों का संघर्ष छोड़कर धर्म -मजहब के संवेदनशील विमर्श में अपनी टेडी टांग  घुसेड़ते रहते हैं। आमतौर पर आर्थिक- सामाजिक -राजनैतिक मसलों पर एक कम्युनिस्ट का अध्यन किसी पूँजीवादी अथवा साम्प्रदायिक नेता से  बेहतर होता है।क्योंकि उसकी सोच का वैज्ञानिक आधार होता है। किन्तु जब कभी धर्म-मजहबकी  चर्चा होती है, और यदि वह घोर नास्तिक बनने का ढोंग करता है तो जनता वह भी समझ  जाती है। दूसरी ओर भाववादी भृष्ट लोग भी  प्रचारित करते रहते हैं कि कम्युनिस्ट एवम प्रगतिशील खेमेंमें तो सब नास्तिक ही भरे पड़े हैं।जबकि तथाकथित आस्तिक लोगभी 'नास्तिक' के बारे में कुछ नहीं जानते। कुछ मूर्खोंने तो 'नास्तिक' चार्वाक दर्शन को  मार्क्सवाद से नथ्थी कर डाला है!

वस्तुतः वेदों को नहीं मानने वाला नास्तिक कहा जाता था वास्तव में 'नास्तिक'  वह नहीं जो अनीश्वरवादी है, बल्कि नास्तिक तो वह है जो बाप को बाप और माँ को माँ नहीं समझता। जो कृतघ्न- एहसान फरामोश और परजीवी है  जो समाज में घृणा फैलाता है ,जो जातिवाद की राजनीति करता है ,जो बेईमान है और अनैतिक कर्म करता हैमैं उसे नास्तिक कहता हूं । अपने विवेक ,साहस और परिश्रम से जीवन यापन करता है उसे किसी ईश्वर की वैसे ही जरूरत नहीं जैसे कि दहकते सूरज को किसी अन्य ऊर्जा स्त्रोत से तपन हासिल करने की आवश्यकता नहीं !

कौन आस्तिक है कौन नास्तिक है यह व्यक्तिगत सोच और आचरण का विषय है। कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति ,समाज ,राष्ट्र या विचारधारा के बारे में यह निर्णय नहीं कर सकता कि 'अमुक' व्यक्ति या अमुक विचारधारा वाले लोग नास्तिक हैं या अमुक व्यक्ति और अमुक विचाधारा के लोग आस्तिक हैं।
इस संदर्भ में संस्कृत सुभाषित बहुत प्रसिद्ध है :-
काक : कृष्ण पिक : कृष्ण , कोभेद पिक काकयो :!
वसन्त समय शब्दै : , काक: काक: पिक: पिक: ! !
इसका सुंदर अनुवाद स्वयम बिहारी कवि ने किया है :-
भले-बुरे सब एक से ,जब लों बोलत नाहिं।
जान परत हैं काक -पिक ,ऋतु वसन्त के माँहिं ।।
अर्थ :- अच्छा-बुरा ,आस्तिक -नास्तिक सब बराबर होते हैं ,जब तक वे अपने बचन और कर्म का प्रदर्शन नहीं करते। वसन्त के आगमन पर ही मालूम पड़ता है कि कोयल और कौआ में क्या फर्क है ?

यदि कोई कहे कि मैं 'नास्तिक' हूँ तो मान लो कि वो है,इसमें अपना क्या जाता है ? और यदि कोई कहे कि मैं तो 'आस्तिक' हूँ तो मान लो कि वो है,इससे तुम्हे क्या फर्क पड़ता है ? वैसे भी जो अपने आपको आस्तिक मानते हैं वे आसाराम,नित्यानंद और तमाम बाबा-बाबियां किस तरह के आस्तिक हैं यह सारा जगत जानता है। जबकि गैरी बाल्डी ,सिकंदर,जूलियस सीजर ,गेलिलियो ,अल्फ़्रेड नोबल ,आइजक न्यूटन डार्विन , रूसो,बाल्टेयर एडिसन,नेल्सन मंडेला ,मार्टिन लूथर किंग ,पेरियार, न्याम्चोमस्की जैसे लाखों नाम हैं जो अपने आपको नास्तिक मानते थे।
भारतीय हिन्दू दर्शन के अनुसार इस जीव जगत में ऐंसा कोई चेतन प्राणी नहीं जिसमें ईश्वर न हो !यह स्वयम भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है !
ईश्वरः सर्वभूतानाम ह्रदयेशे अर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन सर्वभूतानि ,यन्त्रारूढानि मायया।। ,,[गीता-अध्याय १८ -श्लोक ६१ ]
अर्थ :-हे अर्जुन ! शरीररूप यन्त्रमें आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी मायासे उनके कर्मानुसार भ्रमण कराता हुआ सब प्राणियों में स्थित है। अर्थात ईश्वर सब में है। जो यह मान लेताहै वह आस्तिक है,जो न माने वो नास्तिक है। लेकिन नहीं मानने वाला जरुरी नहीं कि बुरा आदमी हो और मान लेने वाला जरुरी नहीं कि वह अच्छा आदमी ही होगा !वह रिश्वतखोर भी हो सकता है ,वह बदमाश -आसाराम जैसा लुच्चा भी हो सकता है !
जब कोई व्यक्ति कहे कि ''मैं नास्तिक हूँ '' तो उसे यह श्लोक पढ़ना होगा, यदि वह कुतर्क करे और कहे कि मुझे गीता और श्रीकृष्ण पर ही विश्वाश नहीं ,तो उसे याद रखना होगा कि श्रीकृष्ण ही दुनिया के सर्वप्रथम नास्तिक थे। उन्होंने ही 'वेद'विरुद्ध यज्ञ ठुकराकर सर्वप्रथम इंद्र की ऐंसी -तैसी की थी। गोवर्धन पर्वत उठाने की कथा भले ही रूपक हो ,किन्तु उसी रूपक का कथन यह है कि श्रीकृष्ण ने ही सबसे पहले धर्म के आडम्बर-पाखण्ड को त्यागकर -गायों ,नदियों और पर्वतों को इज्जत दी थी। यदि कोई कम्युनिस्ट भी श्रीकृष्ण की तरह का 'नास्तिक ' है तो क्या बुराई है ?
मैं स्वयम न तो नास्तिक हूँ और न आस्तिक ,मुझे श्रीकृष्ण का गीता सन्देश कहीं से भी अवैज्ञानिक और असत्य नहीं लगा। लेकिन बुद्ध का वह बचन जल्दी समझ में गयाकि 'अप्प दीपो भव'' । बुद्ध कहा करते थे ईश्वर है या नहीं इस झमेले में मत पड़ो ''! कार्ल मार्क्स ने भी सिर्फ 'रिलिजन' को अफीम कहा है ,उन्होंने भी बुद्ध की तरह ईश्वर और आत्मा के बारे में कुछ नहीं कहा। मार्क्सने भारतीय दर्शन के खिलाफ भी कभी कुछ नहीं लिखा। बल्कि मार्क्सने वेदों की जमकर तारीफ की है। उन्होंने ऋग्वेद में आदिम साम्यवाद का दर्शन की खोज की है । उन्होंने ही सर्वप्रथम दुनिए को बताया था कि 'वैदिककाल में आदिम साम्यवादी व्यवस्था थी और उसमें वर्णभेद,आर्थिक असमानता नहीं थी '' तथाकथित आस्तिक हिन्दू [ब्राम्हण पुत्र भी ] वेदों के दो चार सूत्र और मन्त्र पढ़कर साम्प्रदायिकता की राजनीति करने लगते हैं। वे यदि आस्तिक वेदपाठी प्रकांड पण्डित न भी हो किन्तु इस श्लोक को तो याद कर ही ले।
''अन्यनयाश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषाम नित्याभियुक्तानां योगक्षेम वहाम्यहम।। '' [गीता अध्याय ९ श्लोक-२२]
श्रीराम तिवारी

भारत के अधिकान्स हिंदी भाषी लोग उर्दू के 'खिलाफत'शब्द का बेहद दुरूपयोग करते रहते हैं। दरसल इस 'खिलाफत' शब्द का वास्तविक अर्थ है 'इस्लामिक संसार के प्रमुख की सत्ता'! सार्वजानिक तौर पर भारतीय जन मानस द्वारा इस 'खिलाफत' शब्द का सबसे पहले प्रयोग १९१९ के खिलाफत आंदोलन के दौरान  किया गया था। तब इस शब्द को उसके सही अर्थ में प्रयोग किया गया था। किन्तु वर्तमान दौर में  'इस्लामिक दुनिया' का कोईभी व्यक्ति सत्ता के केंद्र में नहीं है अर्थात इस्लामिक'खलीफा' कोई नहीं है ,इसलिए दुनिया में 'खिलाफत' का भी कोई अस्तित्व ही नहीं है। फिर भी भाई लोग इस 'खिलाफत' शब्द की आये दिन ऐंसी -तैसी करते रहते हैं।अधिकांस जब पढ़े-लिख लोग इस शब्द को 'राजनैतिक विरोध ' या 'आलोचना' के पर्यायबाची रूप में इस्तेमाल करते हैं तो बड़ी कोफ़्त होती है। विरोध का वास्तविक उर्दू शब्द है 'मुखालफत' किन्तु इस शब्द को केवल वही इस्तेमाल करते हैं जो उर्दू जानते हैं।


जिस तरह अनाड़ियों नई खिलाफत शब्द की दुर्गति की है ,उसी तरह कुछ 'काम पढ़े लिखे 'लोगों ने संस्कृत के धर्म,अधर्म,आस्तिक,नास्तिक इत्यादि  शब्दोंका कबाड़ा कर डाला है। विद्वान् लोग जानते हैं कि संस्कृत के 'धर्म' शब्द का वास्तविक अर्थ रिलिजन या मजहब नहीं है। उसी तरह नास्तिक का सटीक अर्थ 'काफ़िर' अथवा  यथेस्ट [Atheist] नहीं है। इसलिए इस्लाम ,यहूदी या ईसाई मजहबों में 'संस्कृत के 'धर्म' अथवा  'नास्तिक' शब्द का कोई विकल्प नहीं है। यदि कोई शब्द पाया गया तो उसका अर्थ 'वेद विरुद्ध' वाली अवधारणा से बिलकुल पृथक होगा। भारतीय 'वैदिक वांग्मय' के अनुसार जो वेदविरुद्ध है वही नास्तिक है। इस सिद्धान्त के अनुसार सिर्फ भारतीय साँख्य ,न्याय,वैशेषिक इत्यादि दर्शन और जैन, बौद्ध ,सिख ,चार्वाक मतावलंबी को नास्तिक ही होना चाहिए। इस्लाम  ईसाई अथवा अन्य सेमेटिक मजहबों का इस शब से कोई सरोकार नहीं। भारत में चार्वाक मतावलम्बियों और अर्वाचीन साम्यवादियों ,समाजवादियों या रेशनलिस्टों के अलावा कोई भी अपने आपको नास्तिक नहीं मानता।

साम्यवादी दलों मेंभी सिर्फ उच्च शिक्षित नेतत्वकारी लोग ही दावा करते हैं कि वे 'नास्तिक' हैं। किन्तु वे नास्तिक शब्दको 'मार्क्सवाद' की वैज्ञानिक भौतिकवादी व्याख्या के 'अवैदिक' संदर्भ में देखते हैं। वास्तविक नास्तिक वेभी नहीं हैं। उनके नेतत्व में संगठित सर्वहारावर्ग का बहुत बड़ा हिस्सा न तो आस्तिक है और न ही नास्तिक है। जो शख्स दो वक्त की रोटी की जुगाड़  में रात-दिन खेतों-कारखानों में पिस रहा हो ,जिसे किसी बाबा गुरु घण्टाल के क़दमों में शीश नवाने का अवसर ही न मिलता हो ,जो मंदिर -मस्जिद के अंदर ही न जा पाता हो ,उसे नास्तिक  कहो या आस्तिक कोई फर्क नहीं पड़ता।

जो जेब कतरे,लुच्चे -लफंगे गली मोहल्ले में मटकी फोड़ या होली की हुल्लड़ करते हैं ,भगवा - हरा दुपट्टा गले में बांधकर कोई गणेशोत्सव ,कोई करबला वाली छाती कूट रस्म ऐडा करता हो और बाद में रातको चेन स्नेचिंग और सट्टाखोरी ,जुआखोरी करते हों वे सिर्फ इसलिए आस्तिक नहीं हो जाते कि वे आसाराम जैसे बलातकारी की पैरवी करते हैं, मजहब के नाम पर 'जेहाद'की आग में जलते हैं। देश और दुनियाका  मेहनतकश मजदूर -किसान सिर्फ और सिर्फ 'सर्वहारा' है। उसे नास्तिक-आस्तिक शब्दों  की जरूरत ही नहीं है।

ऋगवेद के अस्ति -नास्ति प्रत्यय से उतपन्न आस्तिक एवम नास्तिक शब्दों का विस्तृत विमर्श संस्कृत वांगमय में और भारतीय प्राच्य 'दर्शन' में भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। उपनिष्दकाल में यह सिद्धांत प्रचलन में आया कि जो 'वेद' विरुद्ध है वह नास्तिक है।  ! नास्तिक -आस्तिक एक ही सिक्के के दो पहलु !
जब कोई व्यक्ति धर्म-मजहब ,आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी कपोलकल्पित साहित्य और 'ईश्वर'के अस्तित्व परआस्था -अंधश्रद्धा रखे,कोई सवाल नहीं करे- बल्कि धर्मगुरु और शास्त्र जो कहे उसे सत्य मानकर चले तो यह 'आस्तिक' का लक्षण है।जब कोई व्यक्ति कहे कि 'मैं जो कह रहा हूँ वही सत्य है' तो यह अभिमानी का लक्षण है !जब कोई व्यक्ति कहे कि 'दूसरों का अनिष्ट किये बिना ,किसी को हानि पहुंचाए बिना,तर्क की कसौटी पर जो सापेक्ष सत्य सिद्ध होगा-  मैं उसे ही स्वीकार करूँगा'  तो यह वैज्ञानिक का लक्षण है ! किसी को हानि पहुंचाए बिना,पाखण्ड और चमत्कार के झांसे में आये बिना जो व्यक्ति कहे कि 'मैं हमेशा न्याय का पक्षधर रहूँगा' तो यह 'स्वाभिमानी'का लक्षण है ! जो शख्श तर्कवादी, स्वाभिमानी ,विज्ञानवादी तथा  मानवतावादी होता है उसे ही 'नास्तिक' कहते हैं। जिस तरह यह सच है कि संसारके अधिकांस वैज्ञानिक अनुसन्धानकर्ता नास्तिक  थे। उसी तरह यह भी सच है कि संसार में सत्य ,अहिंसा,क्षमा ,नैतिकता, इंसानियत और तमाम मानवीय मूल्यों की स्थापना 'आस्तिक' मनुष्यों द्वारा की गई  है।

शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

हिंदी भाषी जनता रामेदव के पतंजलि उत्पादों की ग्राहक मात्र रह गयी है।

 जिन लोगों को बाबा रामदेव से योग सीखने और पतंजलि उत्पादों के सेवन से स्वष्थ जीवन जीने की प्रेरणा मिली उन्हें बधाई! लेकिन मैं बाबा रामदेव से अनेक मामलों में सहमत नहीं हूँ। बाबा रामदेव  एक 'आँख मारते' हुए जब दुरंगी राजनैतिक शब्दावली का प्रयोग करते हैं ,जब मोदी सरकार का बचाव करते हैं और जब विपक्ष की लानत-मलानत करते हैं तो उनका यह  कदाचरण महर्षि पतंजलिकी 'योगविद्या' से मेल नहीं खाता ! जहाँ तक रामदेवके द्वारा विश्वव्यापी 'योग' प्रचार का प्रश्न है तो इससे भारत के ५०% नंगे-भूंखे सर्वहारा वर्ग के लिए कोई मायने ही नहीं हैं।  व्यक्तिगत रूपसे मैं जन्मजात वंशानुगत योगी हूँ।मैंने रामदेव से कुछ नहीं  सीखा ,बल्कि  वंश परम्परा से ही उत्तराधिकार में मुझे राज योग ,सदाचार,और स्वाध्याय की शिक्षा दी गयी थी। हमें बचपन से ही घुट्टी पिलाई गयी कि 'नहीं ज्ञानेन सदृशं पवित्र महि विद्द्ते '! हमारे व्यक्तित्व निर्माण में स्वामी रामदेव का कोई अवदान नहीं है !किन्तु अब स्वामी रामदेव मुझे अच्छे लगने लगे हैं। क्योंकि उनका हृदय परिवर्तन होने लगा है ,उन्होंने आरबीआई के बहाने मोदी सरकार पर ही  निशाना साधा है कि नए नोट गलत नंबरिंग से छापे गए हैं और एक ही नंबर के डबल नोट करोड़ों में छाप डाले हैं। नोटबंदी में हड़बड़ी और हड़बड़ी में गड़बड़ी से मोदी सरकार के पसीने छूट रहे हैं !विपक्ष और कांग्रेस को तो संघ परिवार 'देशद्रोही' समझता है ,किन्तु चुनाव जिताऊ स्वामी रामदेव पर क्या आरोप लगाते हैं यह देखने की बात है ?

१७वीं -१८ वीं सदी के ध्वस्त भारत को गुलाम बनाते हुए, अंग्रजोंने अपने साम्राज्यवादी हितो को ध्यान में रखते हुए सर्वप्रथम मद्रास ,बंगाल,केरल,मुंबई ,दिल्ली ,देहरादून,चंडीगढ़ , पंजाब में 'मैकाले पध्दति' से शिक्षा प्रारम्भ की  थी। इसीलिये आजादी के बाद अधिकांस उच्चतर नौकरियां -पूर्वी,पष्चिमी और दक्षिण भारत के ही अंग्रेजीदां लोगों को  मिलती रहीं। कालांतर में नव आरक्षित  वर्ग भी इस अंग्रेजीदां नौकरशाही और राजनीतिक सत्ता का  हिस्सेदार हो गया। लेकिन हिंदी भाषी क्षेत्र -यूपी ,बिहार,राजस्थान,मध्य भारत,बुन्देलखण्ड और विदर्भ इत्यादि की अधिकान्स जनता -आजादी के पहले वाली स्थिति से भी बदतर हालात में धकेल दी गयी। भारत का विशाल हिंदीभाषी भूभाग अपनी खनिजसम्पदा,वन सम्पदा और श्रम शक्ति तो देश को अर्पण करता रहा लेकिन  इस क्षेत्र की आबादी को शिक्षा,स्वास्थ्य ,रोजगार से महरूम रखते हुए या तो भगवान् भरोसे छोड़ दिया गयाअथवा विराट वोट बैंक बना दिया गया।

सामंतकालीन अथवा गुलाम उत्तर भारत में जो लोग वंशानुगत रूप से जल-जंगल और जमीनों पर काबिज थे, आजादीके बाद वही लोग राजनीति और नौकरशाही में घुस गए। आजादी के तुरन्त बाद के बिन्ध्यप्रदेश,मालवा , महाकौशल और बाद के मध्यप्रदेश, छग ,बुन्देलखण्ड और विदर्भ के शासन-प्रशासन में अधिकांस नौकरियों में पंजाबी,मराठी ,मुस्लिम ,सिंधी,बंगाली,मलयाली,तमिल और तेलगु वाले ही थे। उत्तर भारत के हिन्दीभाषी  हिन्दू और खास तौर से अधिकान्स ब्राह्मण परिवारों में श्रीमदभगवदगीता ,दुर्गासप्तशती ,वेद,उपनिषद, रामायण,विवाह पद्धति,अष्टाध्यायी,भागवतपुराण और पतंजलि योगसूत्र जैसी कुछ फटी-पुरानी पुस्तकों को पढ़ने पढ़ाने का चलन था। आजीविका का परंपरागत साधन छीज रहा था और उसके अलावा कोई अन्य विकल्प था ही नहीं। फिर भी वे इस संस्कृत वाङ्ग्मय को छाती से लगाए हुए थे। बीस साल पहले जब 'पतंजलि' आर्थिक साम्राज्य के स्वामी बाबा रामदेव इस हिंदी पूण्य धरा पर प्रकट भये याने  'अवतरित' हुए तो उन्होंने   बेचारे हिंदी भाषियों को ही अपना पहला शिकार बनाया। इससे उनका आर्थिक साम्राज्य तो खूब फला -फूला किन्तु हिंदी भाषी जनता रामेदव के पतंजलि उत्पादों की ग्राहक मात्र रह गयी है। उनके आर्थिक साम्राज्य की अधिकांस नौकरियां भी जाने कहाँ बिल गयीं हैं ? इसलिए उनके तथाकथित आयुर्वेदिक उत्पादों पर मैंने कभी यकीन नहीं किया।

गुरुवार, 15 दिसंबर 2016



'मैं' जो कह रहा हूँ  वही सत्य है ,यह अभिमानी का लक्षण है ! जो सत्य होगा उसे 'मैं 'सहर्ष स्वीकार करूँगा ,यह ज्ञानी का लक्षण है !  दूसरों का अनिष्ट किये बिना ,किसी को हानि पहुंचाए बिना 'मैं' हमेशा न्याय का पक्षधर रहूँगा यह 'स्वाभिमानी'का लक्षण है ! महर्षि आर बी बाँके

शनिवार, 10 दिसंबर 2016

अम्बानी,अडानी,अड़िया,और रोहतगी जैसों की सलाह मानकर चायवाले 'भाईजी' जाने कब अर्थशास्त्री हो गए?लेकिन उन्होंने  विमुद्रीकरण सहित उदारीकरण का जो अर्थशास्त्र देश पर थोप दिया है ,वह शिंजो आबे ,पुतिन और 'बराक भाई' भी शायद पसन्द न करे! काश उन्होंने अपने 'आम आदमी' वाले व्यक्तित्व का ख़ास पूँजीवादी कायाल्पकरण करने से पहले कविवर रहीम का यह दोहा पढ़ लिया होता !

''रहिमन देख बडेन को ,लघु न दीजिये डार।

 जहाँ काम आवे सुई , कहा  करे  तलवार।।''


मोदी जी और उनकी टीम से यह उम्मीद नहीं कि वे दास केपिटल या 'वेल्थ ऑफ़ नेशन्स' पढ़ें ! वे चाणक्य का अर्थशास्त्र पढ़ें ,इसकी भी उम्मीद नहीं ! किन्तु वे गोस्वामी तुलसीदास रचित 'रामचरित मानस' के सिर्फ दो दोहे भी ठीक से पढ़ लें तो वे या तो राजनीती छोड़ देंगे या पूंजीवादी 'नीतियाँ ' बदल डालेंगे !

[१]-दंड जतिन कर  भेद जहँ ,नर्तक नृत्य समाज।

    जितहु मनहिं अस सुनिय जग ,रामचन्द्र के राज।। [उत्तरकांड]

[२]- बिधु महि पूर मयूखन्हि ,रवि तप जितनेहु काज।

        मांगे बारिद  देहिं  जल , रामचन्द्र  के  राज।।  [उत्तरकांड]

रविवार, 27 नवंबर 2016

संघर्षमें शामिल सभी साथियोंको -नमन

''भारत बन्द'' तो विगत ८ नवम्बर से ही जारी है। आज २८ नवम्बर को तो केवल 'जबरा मारे और रोने न दे '' वाली  कहावत ही  चरितार्थ हो रही है। कालेधन वाले हरामखोर बदमाश -तक्षक नाग अपने बिलों में छुपकर काले को सफ़ेद कर चुके हैं। चूँकि उनकी बीसों घी में हैं इसलिए भारत बन्द विरोध कर रहे हैं। नोटबंदी का समर्थन करने यदि उन घरों में जाएंगे जहाँ नोटबंदी के कारण मौतें हुईं हैं, तो शायद उनकी आत्मा में इंसानियत जाग उठेगी।  

  जिनके पास संपत्ति के रूप में केवल अपना खून-पसीना है ,जो मेहनतकश नर-नारी गरीबी में भी अपना ईमान नहीं छोड़ते ,जो किसी भी तरह के अन्याय को सहन नहीं करते , जो सच्चे देशभक्त हैं ,जो शासकों की सनक को देश के लिए खतरा मानते हैं, जिन्हें लगता है कि नोटबंदी के कारण कालाधन सरकार के हाथ नहीं आया, किन्तु ईमानदार जनता अवश्य परेशान हो रही है, ऐंसे जावाँज देशभक्त लोग आज  'विमुद्रीकरण 'की खामियों का और उसकेलिए जिम्मेदार नेता का पुरजोर विरोध कर रहे हैं ! इस संघर्षमें शामिल सभी साथियोंको -नमन !श्रीराम !  

शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

संसद की अवमानना करने वालों को बेनकाब किया जाए !


 प्रगतिशील विचारकों - दार्शनिक सिद्धान्तकारों के अनुसार 'व्यक्ति -विशेष' की बनिस्पत ' विचार विशेष ' की महत्ता ही श्रेष्ठ है। इतिहास गवाह है जब-जब किसी 'व्यक्ति विशेष' को समाज या राष्ट्र से ऊपर माना गया, तब-तब मानव समाज ने बहुत धोखा खाया है। किसी 'व्यक्ति विशेष' के पक्ष -विपक्ष के कारण ही दुनिया में दो बड़े महायुद्ध हो चुके हैं।  भारत जैसे देश को तो इसी व्यक्ति केंद्रित सोच के कारण सदियों की गुलामी भोगनी पड़ी !दुनिया की जिस किसी कौम ने ,राष्ट्र ने, 'विचारधारा की जगह किसी व्यक्ति विशेष' को 'अवतार' या 'हीरो' माना  उस देश और समाज की बहुत दुर्गति हुई है।

जिस किसी प्रबुद्ध कौम या राष्ट्र ने 'व्यक्ति विशेष' की महत्ता के बजाय उसके द्वारा प्रणीत श्रेष्ठ 'मानवीय मूल्यों' को अर्थात ''विचारों' को  महत्व दिया ,उस कौम या राष्ट्र ने अजेय शक्ति हासिल की। व्यक्ति की जगह मानवीय मूल्य , मानवोचित विचार और विवेक को महत्व देने के कारण ही अंग्रेज जाति ने सैकड़ों साल तक अधिकांस दुनिया पर राज किया है। जबकि अपने तानाशाह शासक नेपोलियन की जय- जयकार करने वाली फ़्रांसीसी जनता को एक अंग्रेज जनरल 'वेलिंग्टन' के सामने शर्मिंदा होना पड़ा। इसी तरह हिटलर की जयजयकार करने वाले जर्मनों की नयी पीढी को उनके पूर्वजों का अंतिम हश्र ,आज भी शर्मिंदा करता है। जनरल तोजो की हठधर्मिता के कारण ही हिरोशिमा और नागाशाकी का भयानक नर संहार हुआ था, जिसका नकारात्मक असर आजभी जापानकी जनता  पर देखा जा सकता है। जो कौम या राष्ट्र इतिहास से सबक नहीं सीखते उनका वजूद हमेशा खतरे में रहता है !

कल्पना कीजिये कि घोड़े के पैर में लोहे की नाल ठुकती देख ,मेंढक भी नाल ठुकवा ले तो क्या होगा ? नाई को हजामत बनाते देख कोई बंदर भी उस्तरा चलादे तो क्या होगा ? सोचिये कि यदि कोई भारतीय नेता आधुनिक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में ,किसी पूर्ववर्ती सामंतयुगीन तानाशाह या बीसवीं सदी के बदनाम 'डिक्टेटर' की नकल करने लगेगा तो क्या होगा ? सदन का नेता और देशका प्रधानमंत्री किसी प्रासंगिक एजेंडे पर संसद में बयान देने के बजाय उसी विषय पर कभी मथुरा ,कभी आगरा और कभी बठिंडा की आम सभा में भाषण देते रहेंगे तो यह सरासर लोकतंत्र का अपमान होगा  !निश्चय ही यह तुगलक बनने की अपवित्र चेष्टा कही जाएगी ! यदि संसद का अनादर होगा तो लोकतंत्र कैसे जीवित रह सकता है ? चूँकि समाजवाद के लक्ष्य की पूर्ती के लिए  लोकतंत्र रुपी धनुष और सर्वहारा वर्ग की एकजुटता का बाण जरूरी है इसलिए लोकतंत्र की सर्वोच्च शक्ति याने भारतीय संसद की गरिमा को अक्षुण बनाये रखना जरुरी है।  संसद की अवमानना करने वालों को बेनकाब किया जाए !

 चूँकि एनडीए सरकार की 'नोटबंदी' योजना का 'जापा' बिगड़ चुका है। विपक्ष को  इस पर 'भारत बंद' करने की कोई जरूरत नहीं है। देश की जनता खुद समझदार है और यदि उसे इस योजना से बाकई हैरानी -परेशानी है या कष्ट हुआ है तो वह ही खुद निपट लेगी। देशके राजनैतिक विपक्ष को इस नोटबंदी पर आइंदा ज्यादा ऊर्जा बर्बाद करने के जरूरत नहीं है। इसके बजाय एकजुट होकर ,प्रधानमंत्री द्वारा लगातार की जा रही संसद की अवमानना पर अधिक ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। इसके लिए 'बहरत बंद' नहीं बल्कि देशभर में एक दिनका सामूहिक उपवास या भूंख हड़ताल का सर्वसम्मत प्रोग्राम बनाना  चाहिए ! देश की आवाम को संसदीय लोकतंत्र के खतरों से अवगत  कराया जाना चाहिए। वेशक इस 'नोटबंदी' से लगभग सौ निर्दोष जाने गयीं हैं, किन्तु यह भी सच है कि आतंकवाद ,नक्सलवाद , कालेधन पर कुछ तो असर हुआ है। 'अच्छे दिनों' की आशा में देश की जनता तकलीफ  उठाकर भी इन तत्वों को निपटानेके मूडमें है। इसलिए नोटबंदी पर अब ज्यादा तरजीह देनेकी जरूरत नहीं है।  

हालाँकि यह खेदजनक है कि  भारत की अधिकांस जनता इन दिनों एक खास 'व्यक्ति' के भरोसे है। जैसे सिकंदर के आक्रमण के समय पौरुष के भरोसे रहे ,जैसे  मुहम्मद बिन कासिम के हमले के वक्त दाहिरसेन के भरोसे रहे जैसे मुहम्मद गौरी के हमले के समय पृथ्वीराज चौहान के भरोसे रहे ,जैसे बाबर के हमले के समय राणा सांगा के भरोसे रहे , जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी की तिजारत के समय सिराजुददौला -मीरकासिम के भरोसे रहे जैसे अंग्रेजों के आक्रमण के समय बहादुशाह जफर के भरोसे रहे ,वैसे ही इन दिनों भारत की आवाम का एक खास हिस्सा नरेद्र मोदी  के भरोसे है। तो दूसरा हिस्सा भी केवल उनकी आलोचना में ही व्यस्त है। नीतियों-कार्यक्रमों पर अभी बहुत कम बात हो रही है। श्रीराम तिवारी !

गुरुवार, 24 नवंबर 2016

का वर्षा जब कृषि सुखाने। समय चुके पुनि का पछताने।। ''

नोटबंदी के कारण इतनी सारी मौतें हो जाने के बाद ,निरीह जनता की करोड़ों बेबस आँखों से गंगा-जमुना बह जाने के बाद , नोटबंदी योजना में लगातार संशोधन रुपी सैकड़ों थेगड़े लग जाने के बाद ,डॉ मनमोहनसिंह उर्फ़  'मौनी बाबा' अब जाकर राज्य सभा में बोले हैं ! जो व्यक्ति १० सालतक देश का प्रधानमंत्री रहा हो और जिसकी  रहस्यमय 'चुप्पी' के कारण जुमलेबाजों को सत्ता नसीब हुई हो, जो सन्सार के प्रमुख अर्थशास्त्रियों में से एक हो , जो विश्वबैंक का डायरेक्टर और अंतर्राष्टीय मुद्राकोष का सलाहकार रहा हो -उसका इस तरह देर से मुखर होना किस काम का ?  गोस्वामी तुलसीदास जी बाबा शायद इन्ही के लिए कह गए हैं -'' का वर्षा जब कृषि सुखाने। समय चुके पुनि का पछताने।। ''  For more reading please visit on www.janwadi.blogspot.com

यदि आप दूसरों के सतत सहयोगी बने रहेंगे तो !


यदि आप  वरिष्ठजनों ,सुह्रदयजनों और अभिभावकों के प्रति कृतज्ञता भाव रखते हैं तो आप को नैसर्गिक रूप से तत्काल ख़ुशी प्राप्त होगी। ज्यों ही आप नकारात्मक विचार तरंगों को प्रतिबंधित करते हैं ,अपना मन अनावश्यक मुद्दोंसे हटाकर उसे प्रकृति दर्शन ,आत्मदर्शन की ओर ले जाते हैं ,अथवा किसी के हितका विचार धारण करते हैं, खुशी की लहर तुरन्त दौड़ी चली आती है। छोटे -छोटे बच्चों की किलकारियों ,सितारों से सजी चांदनी रात और किसी मनोअनुकूल स्वजन से सहज वार्तालाप निश्चय ही सतत ऊर्जावान बनाते हैं। यदि आप किसी भी कार्य को करने से पहले यह देख लें कि वह अनैतिक तो नहीं है ,वह किसी अन्य के अहित का कारण तो नहीं बनेगा और उसे करने से किसी का कुछ लाभ है या नहीं ,तभी आप उस कार्य को करें। अन्यथा 'उससे बेहतर तो 'अकर्म 'की स्थिति ही उचित है। इस तरह जब आप निर्भीक होकर ख़ुशीमन से कोई कार्य करते हैं तो आपको गुणात्मक रूप से अनन्य ख़ुशी मिलती है। यदि आप खुशमिजाज रहेंगे ,दूसरों के सतत सहयोगी बने रहेंगे तो स्वाभाविक रूप से सर्वप्रिय बने रहेंगे। इस तरह आप अपने मन को  स्थिर करने में भी सफल हो सकते हैं,जो विपश्यना ,ध्यान और योग इत्यादि में मददगार सावित होगा। खुशमिजाज व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवनमें तो सफल होता ही है,किन्तु उसका सार्वजनिक जीवन भी भव्य और खुशहाल हो जाता है। वह दुःख ,क्लेश और अभाव में प्रशांतचित्त होकर चुनौतियों का सामना करता है। ऐंसा व्यक्ति भले ही अनीश्वरवादी ही क्यों न हो वह भौतिक,आध्यात्मिक और सर्व - सामाजिक  जीवन भी अक्षुण बनाता हैं । श्रीराम तिवारी !

रविवार, 20 नवंबर 2016


 इंदौर से हर सोमवार को निकलने वाला 'सकारात्मक सोमवार' का आज २१ नवम्बर [सोमवार] का अंक सामने है। इसका प्रथम पृष्ठ पूरा पढ़ने का माद्दा मुझमे नहीं है। जिसमे पूरा पेज पढ़ने की हिम्मत हो वह बड़ा जिगरवाला है  ! पुखरायाँ के समीप हुई भीषण रेल दुर्घटना की मार्मिक रिपोर्ट में उसका  सचित्र वर्णन, १०० से ऊपर दर्दनाक मौतें, सैकड़ों मरणासन्न - घायल , दर्दनाक चीख पुकार इसमें सब कुछ नकारात्मक और मर्मान्तक है ! हे नरेंद्र !हे प्रभु  ! इस देश पर रहम करो !

 इधर भारत के सत्ताधारी नेता जुमलेबाजी में ,जनता को परेशान करने या भरमाने की जद्दोजहद में जुटे हैं ,उधर   तुर्की का राष्ट्रपति एर्दोगान पाकिस्तान आया और पाकिस्तानी संसद में भाषण देकर चला गया। इस भाषण में एर्दोगान ने कश्मीर के सन्दर्भ में पाकिस्तान की कारिस्तानी का समर्थन किया है और भारत के हितों पर खुल्लम -खुल्ला चोट की है ,भारत के नकली 'राष्ट्रवादी' नेता ,उनके 'चारण - भाट और लोभी लालची स्वामी -बाबा लोग केवल विपक्ष को गरियाने में  जुटे हैं !

शनिवार, 19 नवंबर 2016


नोटबंदी अथवा सरकार के किसी अन्य नीतिगत फैसले से यदि जनता को या बैंक वालों को कोई तकलीफ होती है ,यदि लोग  मरने लगते हैं तो इसमें सरकार का कोई असुर नहीं। धार्मिक व्याख्या के अनुसार सभी प्राणी अपने -अपने किये का फल भोग रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी भी अपने रामचरितमानस में यही  कह गए हैं:-

''कोउ न काउ सुख दुखकर दाता। निजकृत कर्म भोग सब भ्राता।।

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मौद्रिक सर्जिकल स्ट्राइक याने नोटबंदी के इस 'महायज्ञ' में जो लोग स्वाहा हो रहे हैं, वे जब तक कतार में खड़े थे तब तक देशभक्त थे [राम माधव और राजनाथसिंह के अनुसार] जब ये देशभक्त कतार में खड़े -खड़े मर गए तो सत्ताधारी लोग इन दिवंगतों को शहीद  मानने से इनकार कर रहे है। नेता और मंत्री इन मौतों पर व्यंगात्मक टिपण्णी करे रहे हैं कि जनता को कोई परेशानी नहीं ! क्या यही लोकतंत्र है ? क्या  यही इंसानियत है ?

शुक्रवार, 18 नवंबर 2016

सरकार ने होम वर्क नहीं किया !


केंद्र सरकार की 'नोटबंदी' योजना से आरबीआई के पास अरबों रूपये पुराने नोटों की शक्ल में जमा हो चुके हैं !इस योजना के लागु होने से सरकार के खजाने में जमा हुई करेंसी में कितना कालाधन जमा हुआ यह तो सरकार ही जाने ,किन्तु इस आपाधापी में जो सैकड़ों जाने गईं हैं, उनमें  कालेधन वाला 'देशद्रोही' शायद एकभी नहीं था।   मोदी जी को मालूम हो कि उनकी इस नोटबंदी से एक नया आपराधिक समाज पैदा हो गया है। कमीशनखोर नए दलाल-भृष्ट बैंक कर्मचारी -अधिकारी और 'अदृष्यजगत' के बेईमानों ने आपण कालाधन सुरक्षित कर लिया है।   ईमानदार और बेकसूर लोग सरकार कीआधी अधूरी तैयारी और 'कुनीति' के कारण लाइन में लगे-लगे मरे हैं या मर रहे हैं। क्या उन्हें 'शहीद' का  दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए ? क्या उन्हें मरणोपरान्त वही सम्मान नहीं मिलना चाहिए जो देश के लिए जान देनेवालों को दिया जाता है?

सरकार और उसके चाटुकारों का ढपोरशंखी रवैया न जाने कितनी और जाने लेगा ? सरकार ने अपनी नोटबंदी पर इतने तदर्थ पैबन्द याने थेगड़े लगाये कि आज कोलकाता उच्च न्यायालय को भी कहना पड़ा कि '' सरकार ने होम वर्क नहीं किया'' । केवल ढींगे हाँकने या कोरी लाठी पीटने से साँप नहीं मरते। अभी तक एक भी कालेधन वाला मगरमच्छ तो क्या छटाक भर की मछली भी नहीं पकड़ सके हैं । बड़े आश्चर्य की बात है कि नोटबंदी बनाम 'मौद्रिक सर्जिकल स्ट्राइक' पर सरकार और उसके 'चमचों' को बिखरे हुए विपक्ष का भौंथरा विरोध भी सहन नहीं हो रहा है। यदि इस नोटबंदी  का मकसद कश्मीरी पत्थरबाजों को नसीहत देना था तो पूरे देश को दाँव पर क्यों  लगाया ?  यदि इस मौद्रिक सर्जिकल स्ट्राइक का मकसद ,पाकिस्तान में छपने वाली नकली करेंसी को रोकना है तो यह बात तो सबको मालूम है कि पाकिस्तान की आईएसआई नकली भारतीय मुद्रा छापकर भारत में खपाती है , यह खबर पूरी दुनिया को वर्षों से मालूम है , क्या यह बात शरीफ के घर चाय पीते वक्त मोदी जी भूल गए थे ?

गुरुवार, 17 नवंबर 2016

आप बेक़सूर लोगों की जान क्यों ले रहे हैं?


अभी -अभी श्रीमतीजी को अस्पताल ले गया ,वहाँ अधिकांस लोग इलाज के लिए रुपयों की मारामारी और पुराने नोटों को बदलने की परेशानी बयां  कर रहे थे।  मैंने भी अपना अनुभव बताया कि 'नोटबंदी' से मुझे तो कोई खास परेशानी नहीं हुई। लोगों ने आश्चर्य से मेरी और देखा और पूँछा  वो कैसे ? मैंने कहा कि मेरे पास काला और गोरा दोनों ही प्रकार का धन नहीं है। रही बात बैंक में जमा मामूली बचत खाते से निकासी की तो सीनियर सिटीजन्स   की हैसियत से जहाँ भी जाता हूँ ,एटीएम की लाइन वाले अपने आप रास्ता छोड़ देते हैं। यह सुनकर मेरे परिचित डॉक्टर ने सवाल किया कि फिर आप अपने ब्लॉग पर और फेसबुक पर मोदी जी की 'मौद्रिक सर्जिकल स्ट्राइक' का विरोध क्यों करते हैं ?

मैंने उन्हें बताया कि यदि पड़ोस के मकान में आग लगी हो तो आप को चैन से सोने की मूर्खता नहीं करनी चाहिए। क्योंकि वह मुसीबत की आग किसी को नहीं छोड़ती। रतलाम में जवान बेटा अपने बाप को लाइन में खड़ा कर आधार कार्ड लेंने घर गया, कार्ड खोजने और नहीं मिल पाने के कारण घबराहट से उसका हार्ट फ़ैल हो गया , पोस्ट मार्टम में डॉक्टरों ने बताया कि मृतक बंदा दो दिनों से भूंखा था। क्योंकि उसका गाँव रतलाम से बहुत दूर है और इधर बैंक में लाइन इतनी लम्बी कि उसका नम्बर आते -आते नोट खत्म हो जाते हैं । बेटे की मौत की खबर सुनकर बाप अभी तक सदमें में है।  यह एक घटना है ,इसी तरह भारत में अब तक लगभग ४४ लोग  इस नोटबंदी की भेंट चढ़ चुके हैं ! वेशक  इस नोटबंदी से मुझे कोई परेशानी नहीं है ! जबकि नक्सली और आतंकी बहुत परेशान हैं। हजार-हजार के नोटों की माला धारण करने वाली नेत्रियां और नेता भी परेशान हैं, किन्तु उन्हें छकाने के लिए आप बेक़सूर लोगों की जान क्यों ले रहे हैं ?  इसके अलावा ओएनजीसी को एक लाख करोड़ का चूना लगाने वाले अम्बानी ,बैंकों को चूना लगाने वाले विजय माल्या ,अरबों का हवाला -घोटाला करने वाले मित्रवर अडानी की काली सम्पदा को सफ़ेद कर चुकने  के बाद यह 'मौद्रिक सर्जिकल स्ट्राइक' केवल प्रहसन बनकर रह गयी है। इसलिए इसके समर्थन या विरोध का बबाल खड़ा करने के बजाय जनता की परेशानी पर तुरन्त  ध्यान दिया जाना चाहिए ! श्रीराम तिवारी ! 

सोमवार, 14 नवंबर 2016

भरतखण्डे उर्फ़ जम्बूदीपे उर्फ़ आर्यावर्त उर्फ़ हिन्दुस्तान उर्फ़ इंडिया उर्फ़ भारतवर्ष में 'कालेधन' की वजह से  समुचित विकास नहीं हो पा रहा है।देश के दुश्मनों द्वारा नकली मुद्रा [कालाधन]छापकर भारत में आतंकवाद - अलगाववाद को बढ़ावा दिया जारहा हैऔर तमाम किस्मके आर्थिक संकट केलिए यह 'कालाधन'ही जिम्मेदार है।भारत के सत्तारूढ़ नेतत्व का दृढ़ विश्वास है कि हजार-पांच सौ की 'नोटबंदी' से सब कुछ ठीक हो जाएगा।  
'वेदांत दर्शन' के कार्यकरण -सिद्धांतानुसार  कालाधन 'कारण' है और नोटबंदी' कार्य है। और यह नोटबन्दी रुपी कार्य ही भारत में वर्तमान 'मुद्रा संकट' रुपी कार्य का कारण बन गया है। इस 'मौद्रिक सर्जिकल स्ट्राइक' की कृपा से देश के निम्न मध्यम वर्ग का दिमाग चकरघिन्नी हो रहा है। देश में  करोड़ों ईमानदार लोग होंगे जिन्हें अभी तक 'नये नोटों ' के दर्शन भी नहीं हुए हैं ,किन्तु आज की ताजा खबर है कि तेलांगना में कुछ 'बदमाशों' को २००० रू० के नए 'नकली नोट' चलाते पकड़ा गया है। समझ में नहीं आ रहा है कि अच्छे दिन आये हैं या कि देश में अघोषित आपातकाल चल रहा है !

गुरुवार, 10 नवंबर 2016


  प्रेसिडेंट पद पर डोनाल्ड ट्रम्प की जीत से  न केवल अमेरिका में बल्कि पूरी दुनिया में अचरज का माहौल  है। जिन लोगों ने हिलेरी की जीत  की भविष्यवाणी की थी और जिन्होंने  ट्रम्प को  'मसखरा' या   'लम्पट' कहा था वे अभी कोमा में हैं। वास्तविकता यह है कि साम्राज्यवादी मुल्क अमेरिका  पूरा का पूरा 'भाँग का कुआँ' ही है ,वहाँ कोई भी प्रेजिडेंट बने, लेकिन सत्ता केवल 'आवारा पूँजी' के निर्देशानुसार ही चलेगी ! अब रही बात तथाकथित सभ्य महिला हिलेरी क्लिंटन की दर्दनाक हार की ,तो पांच साल पहले इन्ही ट्रम्प महाशय ने कहा था ''अमेरिकी महा बेवकूफ होते हैं ''! श्रीराम तिवारी !

 इंदौर ,दिनांक १० नवम्बर -२०१६ ,दैनिक भास्कर की खबर है कि '' विगत आधी रात के बाद से सुबह ४ बजे तक  इंदौर में ५० हजार रुपया प्रति १० ग्राम के भाव से १०० किलो सोना खरीदा गया ! '' यह बताने की जरूरत नहीं कि खरीददार कौन थे ? इनमें से अधिकांस वे  लोग थे जो  कालेधन के मालिक हैं और दिन में अपने आपको 'राष्ट्रवादी' या  सेक्यूरिस्ट 'कहते हैं।  यदि अकेला इंदौर सराफा ही  मात्र तीन घण्टे में ५०० ००००००० /- करोड़ के  कालेधन को सफ़ेद में बदल सकता है,तो देश के अन्य शहरों -और कसवों का कुल योग कितना होगा ?  भारत के धर्मनिरपेक्ष ,ईमानदार और  लाइन में लगकर ,तकलीफ उठाकर २-४ हजार रूपये के लिए पसीना बहाने वाले नर-नारी  सवाल कर रहे हैं कि  प्रधानमंत्री मोदी जी  कहीं आपका यह मौद्रिक सर्जिकल स्ट्राइक भी संदेहास्पद तो नहीं है ? और इसकी भी क्या  गारन्टी है कि  पाकिस्तान का एएसआई और आतंकी निजाम  आइंदा नकली नोट छापकर भारत भेजना बंद कर देगा ? जब व्हाइट कॉलर लोग नयी तकनीक ईजाद कर सकते हैं तो आतंकी  ऐंसा क्यों  नहीं कर सकते  ? श्रीराम तिवारी !
  

मंगलवार, 8 नवंबर 2016

मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ कल्पना का नाम 'ईश्वर 'है !

सैकड़ों साल पहले जब नीत्से ने कहा था कि ''ईश्वर मर चुका है '' तब  फेस बुक ,ट्विटर और वॉट्सअप नहीं थे , वरना साइंस पढ़े -लिखे और साइंस को ही आजीविका बना चुके धर्मांध सपोले उस 'नीत्से' को भी डसे बिना नहीं छोड़ते। आज चाहे  आईएसआईएस के खूंखार जेहादी हों ,चाहे पाकिस्तान प्रशिक्षित कश्मीरी आतंकी हों ,चाहे जैश ए मुहम्मद और सिमी के समर्थक हों या जिन्होंने दाभोलकर,पानसरे ,कलबुर्गी और अखलाख को मार डाला ऐंसे स्वयम्भू कट्ररपंथी हिंदुत्ववादी हों ये सबके सब 'नीत्से' की स्थापना के जीवन्त प्रमाण हैं।


मानव सभ्यता के इतिहास में बेहतरीन मनुष्यों द्वारा आहूत उच्चतर मानवीय मूल्यों को धारण करने की कला का नाम 'धर्म' है !मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ कल्पना का नाम 'ईश्वर' है। भारतीय वांग्मय के 'धर्म' शब्द का अर्थ 'मर्यादा को धारण करना' माना गया है। जबकि दुनिया की अन्य भाषाओं में 'मर्यादा को धारण करना'याने 'धर्म' शब्द का कोई वैकल्पिक शब्द ही नहीं है। जिस तरह मजहब ,रिलिजन  इत्यादि शब्दों का वास्तविक अर्थ या अनुवाद 'धर्म' नहीं है। उसी तरह 'परमात्मा या ईश्वर जैसे शब्दों का अभिप्राय भी अल्लाह  या गॉड कदापि नहीं है। कुरान के अनुसार 'अल्लाह' महान है और मुहम्मद साहब उसके रसूल हैं तथा अल्लाह ही कयामत के रोज सभी मृतकों के उनकी नेकी-बदी के अनुसार फैसले करता   है।इसी तरह  बाईबिल का 'गॉड ' भी अलग किस्म की थ्योरी के अनुसार पूरी दुनिया का निर्माण महज ६ दिनों में करता है और अपने 'पुत्र' ईसा को शक्ति प्रदान करता है की धरती के लोगों का उद्धार करे। जबकि गीता ,वेद और उपनिषद का कहना है की 'आत्मा ही परमात्मा है' ''तत स्वयं योग संसिद्धि कालेन आत्मनि विन्दति''या ''पूर्णमदः पूर्णमिदम ,पूर्णात पूर्णम उदचचते। पूर्णस्य पूर्णमादाय ,पूर्णम एवाविष्य्ते '' याने  प्रत्येक जीवात्मा का अंतिम लक्ष्य अपनी पूर्णता को प्राप्त करना है ,अर्थात परमात्मा में समाहित हो जाना है। इस उच्चतर दर्शन को श्रेष्ठतम मानवीय सामाजिक मूल्यों से संगति बिठाकर जो जीवन पद्धति बनाई गयी उसे 'सनातन धर्म' कहते हैं। कालांतर में स्वार्थी राजाओं ,लोभी बनियों और पाखण्डी पुरोहितों ने  अपने निजी स्वार्थ के लिए धर्मको शोषण-उत्पीड़न का साधन बना डाला। उन्होंने पवित इस धर्म को जात -पांत ,ऊंच -नीच घृणा ,अहंकार और अनीति का भयानक कॉकटेल बना डाला जिसे सभी लोग अब 'अधर्म' कहते हैं। इस अधर्म में जब अंधराष्ट्रवाद और धर्मान्धता का बोलवाला हो  गया तब   कार्ल मार्क्स ने उसे अफीम कहा था । धर्म-मजहब की यह अफीम इन दिनों  पूरी दुनिया में इफरात से मुफ्त में मिल रही है।  श्रीराम तिवारी !


रविवार, 23 अक्तूबर 2016

खबर है की प्रधानमंत्री श्री मोदीजी ने कालेधन वालोंको अभी तक दी जा रही ४५% हर्जाने के साथ कालाधन- सफ़ेद करने वाली स्कीम  बन्द करने का निश्चय किया है। उन्होंने आइंदा कालेधन वालों के खिलाफ 'सर्जिकल स्ट्राइक 'का मंसूबा तय किया है। यदि वे इसमें कामयाब होते हैं तो यह बाकई भारतीय इतिहास में 'पहली बार' होगा। बड़े-बड़े भृस्टाचारियों पर अंकुश लगेगा तो चिन्दीचोर- रिश्वतखोर भी अपने आप लाइन पर आ जायेंगे। इससे देश का खजाना भरेगा और कुछ हद तक देश की जनता को भी 'सुशासन और विकास' का लाभ मिलेगा। तब शायद कुछ 'अच्छे दिन ' भी आ सकते हैं। मोदी जी को भी 'जुमलेबाजी' के आरोप से मुक्ति मिल सकती है। लेकिन यह सब तभी सम्भव है जब वे यह करके दिखाएँ। वरना तो  बिहार के चुनाव में भी 'सवा लाख करोड़' घोषित करके वे शायद भूल चुके हैं।

वे अपनी बल्दियत नहीं बदल सकते !

मुलायमसिंह यादव न तो समाजवादी हैं न ही वे लोहियावादी हैं। वे पिछड़ावर्ग के हितेषी भी नहीं हैं, उन्हें किंचित  'परिवारवादी' भी नहीं कहा जा सकता । दसरल वे उत्तरप्रदेश में क्षेत्रीयतावादी 'नकारात्मक राजनीति' की खुरचन मात्र  हैं। उन्हें सत्ता में लाने का श्रेय विश्वनाथ प्रतापसिंह और लाल कृष्ण आडवाणी को जाता है। वीपीसिंह ने नेता बनाया और आडवाणी जी की रथयात्रा ने उन्हें परवान चढ़ाया। भाई-भतीजावाद,परिवारवाद,भृष्टाचारऔर सैफई- ,गुंडई , जातिवाद और सम्प्रदायवाद उनके चुनाव जिताऊ अश्त्र-शस्त्र रहे हैं। भाई शिवपालयादव ,जिगरी दोस्त अमरसिंह और मुख्तार अंसारी जैसे लोग उनके पुराने राजदार रहे हैं। अब जबकि मुलायम कुनबा आपसी जूतम पैजार में व्यस्त है, तो यक्ष प्रश्न यह है कि मुलायम सिंह यादव की  भृष्ट विरासत पर उनका 'सुपुत्र' अखिलेश यादव ईमानदारी की बुलन्द एवम भव्य ईमारत खड़ी कैसे कर सकता है ? मेरा ख्याल है -नहीं ! क्योंकि अखिलेश यादव को कदाचित राजनैतिक पार्टी निर्माण और उसका संगठन खड़ा करने का अनुभव नहीं है। सपा के निर्माण में भी अखिलेश का कोई योगदान नहीं है। वेशक  वे यदि अपने पिता के संजाल से मुक्त होकर चन्द्र बाबु नायडू या जय ललिता की राह पकडते हैं ,तो उनके लिए संभावनाओं के द्वार खुल सकते  हैं। लेकिन इसमें वक्त लगेगा। क्योंकि यूपी की जनता शायद ही सपा या मुलायम परिवार पर अभी मेहरवान होगी !मुलायमसिंह का वंशज होना जितना लाभप्रद है ,उतना ही कष्टप्रद भी अवश्य होगा और वे अपनी बल्दियत बदल भी नहीं सकते !  

भारतीय काल गणना -अनुसार द्वापर युग की महाभारत इत्यादि घटनाओं और उस युग में सम्पन्न द्वारका के तथाकथित 'यादवी महासंग्राम' को मैं अबतक 'मिथ' ही समझता रहा ,किन्तु उत्तरप्रदेश में 'मुलायम-परिवार' का हश्र देखकर यकीन होने लगा है कि द्वापर में अवश्य ही 'यादवी महासंग्राम' हुआ होगा। मुलायम परिवार की पार्टी 'सपा' का समाजवाद से कोई लेना-देना नहीं है। खुद मुलायमसिंह यादव और उनके अनुज शिवपाल यादव -कहीं से भी समाजवादी नहीं हैं। मुलायम के सुपुत्र अखिलेश यादव अवश्य पढ़े-लिखे और सुलझे हुए युवा नेता लगते हैं, यदि वे अपने पिता को छोड़कर अलग पार्टी बनालें और उत्तरप्रदेश की जनता उन्हें एक बार फिर भरपूर समर्थन दे ,तो शायद अखिलेश यादव यूपी का और बेहतर नेतत्व और विकास कर सकते हैं। श्रीराम तिवारी

शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

'हलाला 'कानून और 'तीन तलाक' जैसे बर्बर कानूनको त्यागने में दिक्कत क्या है ?


 गुस्से में तीन बार तलाक कहने और उन शब्दों को 'ब्रह्म वाक्य' मान लेने से मुस्लिम समाज में कई बार विचित्र स्थिति उत्पन्न हो जाती है। कई बार 'तीन तलाक' कहने -सुनने वालों का दाम्पत्य जीवन बर्बाद होते देखा गयाहै। हर सूरत में  मुस्लिम औरतों को ही तकलीफ उठानी पड़ती है। ऐंसे अनेक उदाहरण प्रस्तुत किये जा सकते हैं।

प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री स्वर्गीय मीनाकुमारी को उनके 'शौहर' जनाब कमाल अमरोही साहब ने गुस्से में 'तीन तलाक' दे दिया था । कुछ समय  बाद पछतावा होने पर कमाल अमरोही ने मीनाकुमारी जी से पुनः 'निकाह' का इरादा व्यक्त किया। मीनाकुमारी भी राजी थीं, किन्तु कमाल अमरोही और मीनाकुमारी की राह में तब   'हलाला कानून' आड़े आ गया ।

'हलाला क़ानून' के अनुसार मीनाकुमारी को बड़ी विचित्र और शर्मनाक स्थिति से गुजरना पड़ा ।उन्हें अमरोही साहब से दोबारा निकाह करने से पहले किसी और मर्द से निकाह करना पड़ा। हलाला के अनुसार उन्हें उस नए शौहर के साथ 'हमबिस्तर' होकर 'इद्दत' का प्रमाण पेश करना पड़ा। इद्दत याने 'मासिक' आने के बाद उन्हें अपने उस नए[!]  शौहर से  'तीन तलाक' का 'अनुमोदन' भी लेना पड़ा ! इतनी शर्मनाक मशक्कत के बाद मीनाकुमारी और कमाल अमरोही का  फिरसे 'निकाह' हो सका !

 हिन्दू समाज में भी स्त्री विरोधी ढेरों कुरीतियाँ  रहीं हैं ,किन्तु उन कुरीतियों से लड़ने के लिए 'हिन्दू समाज' का प्रगतिशील तबका समय-समय पर प्रयास करता रहा है। हिन्दू समाज में बाल विवाह,सती प्रथा और  'विधवाओं की घर निकासी'- काशीवास या मथुरावास जैसे अनेक जघन्य अनैतिक रीति-रिवाज विद्यमान रहे हैं । इनमें से कुछ कुरीतियाँ अभी भी यथावत हैं। किन्तु १८वीं शताब्दी में राजा राममोहन राय और ततकालीन अंग्रेज गवर्नर के प्रयासों से 'सती प्रथा' को समाप्त करने में हिन्दू समाज को  पर्याप्त सफलता मिली है। हालाँकि उसके बाद भी दबे-छुपे तौर पर इस जघन्य प्रथा को कहीं-कहीं प्रश्रय दिया जाता रहा है ,किन्तु  हिन्दू समाज ने और भारत के संविधान निर्माताओं ने इसे अस्वीकार कर दिया ।

जब दुनिया के अधिकांस प्रगतिशील मुस्लिम समाज ने 'तीन तलाक' को अस्वीकार कर दिया है , तब भारतीय मुस्लिम समाज को  इस नारी विरोधी 'हलाला 'कानून और 'तीन तलाक' जैसे बर्बर कानूनको त्यागने में दिक्कत क्या है ? सदियों उपरान्त इस आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी ,हम हर गई गुजरी परम्परा को क्यों ढोते रहें ?बर्बर और समाज विरोधी कुरीतियों की शिद्दत से मुखालफत क्यों नहीं करनी चाहिए ? श्रीराम तिवारी !

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2016



मनुष्य की आत्मिक प्रवृत्ति और मानसिक सोच उसके विचारों में परिलक्षित होती है। यदि किसी मनुष्य की सोच में तार्किकता ,वैज्ञानिकता ,प्रगतिशीलता , क्रांतिकारी- प्रतिबद्धता का सकारात्मक समावेश है तो निसंदेह उसके विचार भी भव्य और सर्वजनहिताय ही  होंगे !जबकि क्रांतिकारी विचारधारा विहीन साधारण मनुष्य निहित स्वार्थी होकर पशुवत आचरण के लिए अभिसप्त हुआ करता है। ऐसा मनुष्य साहित्य ,कला ,संगीत और जन संघर्षों से कोसों दूर रहता है।     

शुक्रवार, 14 अक्तूबर 2016

सब कुछ पहली बार से ही शुरूं हुआ है !


इन दिनों भारत में एक जुमला  ज्यादा ही चलन में है। 'ऐसा पहली बार हुआ '! इस जुमले को  जुमलेबाज ही ज्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। यह प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत है कि राजनीति में यदि साम्प्रदयिक और  कूढ़मगज लोगों को यदि सत्ता का स्वाद चखने को मिल जाए तो वे एक घातक मानसिक बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं। उन्हें जिस  विषय का ज्ञान ही नहीं होता  वे उस विषय में भी बढ़चढ़कर अपनी  ऊलजलूल प्रतिक्रियाएँ देनेके लिए उतावले रहते हैं.!भारत में जबसे मोदी सरकार सत्ता में आई है तबसे सोशल मीडियामें और राजनैतिक गलियारों में एक वाक्य बहुश्रुत है कि  '' ऐसा पहली बार  हुआ है ''! जैसेकि वे कह रहे हैं कि  आपरेशन सर्जिकल स्ट्राइक पहली बार हुआ है, हमारी फ़ौज ने पहली बार पाकिस्तान में घुसकर उसे मारा है।  या कि कोई प्रधानमंत्री पहली बार  लखनऊ के दशहरा समारोह में शामिल हुआ है ,या पहली बार किसी प्रधान मंत्री ने यूएनओ में हिंदी में भाषण दिया । इस तरह की शाब्दिक कलाबाजी केवल आत्मप्रशंसा में ही संभवहै। वे भूल जातेहैं कि आदिमकाल से सब कुछ पहली बार से ही शुरूं हुआ है !

 सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी जानता है कि हरेक की जिंदगी में जो कुछ होता है वह पहली बार अवश्य होता है। जब कोई स्त्री माँ बनती है तो उसके जीवन में दूसरी बार यह हो न हो लेकिन 'पहली बार' यह अवश्य होता है। जब कोई व्यक्ति बीमार पड़ता है ,जब कोई व्यक्ति धोखा खाता है ,जब किसी को कोई सफलता मिलती है ,जब कोई हारता है और जब कोई जीत हासिल होती है तो यह सिलसिला पहली बार से ही आगे बढ़ता है। 'भारत ने आजादी हासिल की' यह भी तो पहली बार ही हुआ है ,वरना गुलामी तो बार-बार इस मुल्क को डसती रही है। भारत टेस्ट क्रिकेट में इंदौर में पहली बार जीता ,या फलाँ खिलाड़ी ने ओलम्पिक में अमुक खेल में पहली बार गोल्ड मेडल हासिल किया। यह जुमला हर इंसान ,हर समाज और हर राष्ट्र में पहली बार से ही शुरूं होता  है ,यही कुदरत का नियम है। हरेक इंसान पहली बार ही मरता है लेकिन ऐंसा कहा नहीं जाता कि 'फलाँ पहली बार मरा  या अमुक पहली बार मरा ! श्रीराम तिवारी !

गुरुवार, 13 अक्तूबर 2016



''धर्मपत्नी -बीबी -घरवाली इत्यादि संज्ञाओं से संबोधित की जाने वाली हस्ती , किसी भी नेक और आदर्श पुरुष की अर्धांगनी ,उसके लिए मंदिर के प्रसाद की तरह हुआ करती है। भगवान् का प्रसाद कैसा भी हो ,उसे आप चाहें या न चाहें, लेकिन  'शृद्धा,सबूरी और मजबूरी 'के साथ स्वीकार करना ही पड़ता है '',,,,,!

गुरुवार, 29 सितंबर 2016

चुल्लू भर सफलता पर बोरा जाना उचित नहीं


ऑपरेशन सर्जिकल स्ट्राइक की आंशिक सफलता पर देशवासियों में आत्मविश्वास जागृत हुआ -सभी को बधाई,! आंशिक सफलता से  तातपर्य है कि पाकपरस्त आतंकवाद का भयानक भूत बहुत शैतानी और अजर-अमर है ।  यह रक्तबीज और सहस्त्रबाहु की तरह पुनर्जीवी और सर्वव्यापी है।पीओके में 'आपरेशन सर्जिकल स्ट्राइक तो महज  एक प्रतीकात्मक कार्यवाही ही है ,लेकिन यह महायुद्ध का शंखनाद भी  सावित हो सकता है। भारतीय नेतत्व को आपरेशन की सफलता से प्रेरणा लेकर आगे की कार्यवाहियों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।

भारतीय सीमा के निकट 'पीओके' स्थित आतंकी केम्पों को ध्वस्त कर भारतीय कमांडोज ने दो पाकिस्तानी फौजियों को मार गिराया और सम्भतः ३८ आतंकी भी ढेर कर दिए। यह पठानकोट,उरी पर हुए आतंकवादी हमलों का माकूल जबाब है। आपरेशन सर्जिकल स्ट्राइक की कार्यवाही का सफल संचालन और सम्पूर्ण विपक्ष का विश्वास अर्जित करना - मोदी सरकार की यह पहली कामयाबी है बधाई ,,! लेकिन सरकार समर्थकों को इस चुल्लू भर सफलता पर बोरा जाना उचित नहीं ,बल्कि होशोहवास में रहकर देश की रक्षा के लिए कटिबद्ध होना बहुत जरुरी है। इसके लिए  सेना और सरकार का साथ देना भी बहुत जरुरी है।और  सरकारी तंत्र में बैठे सभी अफसर - नेता लोग वह आचरण भी अमल में लायें  जो युध्दकाल में  वांछित है। जिस त्याग की भावना काऔर नैतिक आचरण का दरोमदार एक विजेता कौम या राष्ट्र पर हुआ करता है,वह हम भारत के लोगों में भी दिखना चहिये। 'नंगू के गड़ई भई ,बेर-बेर हगन गई' की कहावत चरितार्थ नहीं होनी चाहिए। त्याग और अनुशासन की जो उम्मीद जनता से की जाती है, शासकवर्ग के लोग भी उस पर अमल करंगे तो पाकपरस्त आतंकवाद एवम विश्व आतंकवाद  भी फ़ना हो जाएगा। इस आत्नाक्वाद बनाम आपरेशन सर्जिकल स्ट्राइक के विमर्श में उलझकर देश की आवाम  और सरकार को अपने अन्य अभीष्ट सरोकार नहीं भूलने चाहिए। विश्व विरादरी का विश्वास हर हाल में बनाये रखना जरुरी है।  श्रीराम तिवारी !

मंगलवार, 20 सितंबर 2016

याद रखो आतंकियों ,तुम्हारे सिर लाएँगे काटकर ! [poem by Shriram Tiwari ]

 अबे ओ पाकिस्तान ज़रा होश की दवा कर ,

 बम बारूद की नहीं इंसानियत की फ़िक्र कर ,


 सच्चे 'देशभक्त' चूँकि अभी भारत की सत्ता में हैं ,

 इसीलिये पाक तूँ अभीतक खैरियतसे है शुक्र कर।


  सोचकर देख भाजपा वाले यदि विपक्ष में होते तो,

  अठारह की जगह अठ्ठाईश  सिर ले आते  काटकर।


   पठानकोट,पुंछ, उरी ,उधमपुर ,जम्मू और श्रीनगर

    तूने कितने बेगुनाहोंको मारा मोदी राज में याद कर।


   ढाई साल बाद देशभक्त यदि फिरसे विपक्ष में आगए

    तो याद रखो सारे आतंकियों के सिर लाएँगे काटकर।

                               श्रीराम तिवारी

एक राजनैतिक पृष्ठभूमि पर आधारित फिल्म में हीरो अनिल कपूर फ़िल्मी 'मुख्यमंत्री' अमरीश पूरी को सिस्टम की अनैतिकता पर बड़ा ओजस्वी भाषण देता है। अमरीशपुरी भी कटाक्ष करते हैं कि 'कहना आसान है ,सत्ता में आकर खुद करके दिखाओ तब पता चलेगा, कि सिस्टम के खिलाफ जानेमें कितना जोखिम है !' इस वार्तालाप के बाद अनिल कपूर याने 'नायक'को 'संवैधानिक विशेषाधिकार'के तहत एक दिन का मुख्यमंत्री बना दिया जाता है।

चूँकि अनिल कपूर रुपी 'एक दिन के बादशाह' को ईमानदार न्यायप्रिय जनता एवम परेश रावल रुपी निष्ठावान पीए का समर्थन  हासिल रहता है ,इसलिए फ़िल्मी कहानी का सुखान्त इस सन्देश के साथ होता है कि कितना ही बदनाम और खराब सिस्टम हो यदि  उस सिस्टम के अलमबरदारों को जूते मारो तो वो भी सुधर सकता है।और बिना किसी  रक्तिम क्रांति के २४ घंटे बीतनेसे कुछ क्षण पहले ही 'नायक' द्वारा तमाम भृष्ट अनैतिक आचरण वाले अफसर - नेता और मुख्यमंत्री भी जेल के सींकचों के अंदर कर दिए जाते हैं। मोदी जी याद रखें कि सत्ता सम्भाले हुए उन्हें ढाई वर्ष बीत चुके हैं ,लेकिन अभी तक एक भी किसी बड़े स्केम वाले  भृष्ट नेता -अधिकारी का बाल भी बांका नहीं  हुआ है । स्विस खातों से एक पैसा नहीं आया है और पाकिस्तान परस्त आतंकवादियों पर रंचमात्र लगाम  नहीं कस पाए हैं। बल्कि मोदी सरकार की एकमात्र उपलब्धि यह है कि अम्बानियों-अडानियों के तो वारे-न्यारे हैं और पाकिस्तानी हुक्मरान आये दिन आतंकियों के बहाने भारत के सैनिकों को गाजरमुली की तरह काट रहे हैं। कभी पठाकोट,कभी उधमपुर और कभी उरी केम्प में हमारे सैनिक  बेमौत  क्यों मारे जा रहे हैं ? क्या यही अच्छे दिनों का प्रमाण है ?

बुधवार, 14 सितंबर 2016

ये लातों के भूत हैं बातों से नहीं मानेंगे !'


अलगाववादी आतंकी बुरहान बानी के मारे जाने के बाद ,कश्मीर में पाक परस्त अलगाववादियों ने कोहराम मचा रखा है।  जम्मू -कश्मीर की भाजपा समर्थित महबूबा मुफ्ती सरकार जब इन बदमाश पत्थरबाज दहशतगर्दों को नियंत्रित  करने में असफल रही और  पाकिस्तान ने  जब इस स्थिति पर मगरमच्छ के आंसू यूएनओ में बहाये तो भारत के विरोधी दलों ने इस समस्या को गंभीरता से लिया। उन्होंने दलगत राजनीति से ऊपर उठकर कश्मीरकी ओर  देखा। इतना अहि नहीं सांसदों का सर्व दलीय प्रतिनिधिमंडल खुद कश्मीर गया। लेकिन खेद की बात है कि हुर्रियत के नेताओं ने इस प्रतिनिधि मंडल से बात नहीं की। गुलाम गिलानी,उमर मलिक और अन्य हुर्रियत नेता अपनी-अपनी ऊँची अटरियों से इस प्रतिनिधिमंडल को दूर से निहारते रहे।

वैताल रुपी कश्मीरियत,जम्हूरियत और इंसानियत का शव अपने कन्धों पर लादकर विक्रम रुपी सर्वदलीय प्रतिनिधि मंडल  वैरंग वापिस दिल्ली लौट आया। राजनैतिक इतिहास में इतना अपमान तो  शायद शीत युद्ध के दौरान किसिंगर या ग्रोमिको का भी नहीं हुआ होगा।  इस घटना से कश्मीर विषयक प्रशासनिक विफलताओं की आलोचना भी थम गयी। मुख्यमंत्री  महबूबा मुफ्ती और प्रधानमंत्री  मोदी जी  दोनों को राहत की संजीविनी मिल गयी।  स्टेट पक्ष को  यह कहने का अवसर  भी मिल गया कि 'देखा -हमतो कबसे कह रहे थे कि ये पत्थरबाज केवल लातों के भूत हैं  और बातों से नहीं मानेंगे !'

जहाँ तक  हुर्रियत द्वारा सर्वदलीय सांसदों के प्रतिनिधि मंडल के अपमान का सवाल है ,तो उसके लिए 'अब्दुल रहीम  खान-ए खाना 'पहले ही जाता गए हैं कि :-

''केहिं की महिमा न घटी ,पर घर गए रहीम।

 अच्युत चरण तरंगणी  ,गंग नाम भव  धीम।। ''         [ श्रीराम तिवारी ]

मंगलवार, 13 सितंबर 2016

हिंदी दिवस पर सभी हिंदी प्रेमियों का -सादर अभिवादन !



 दुनिया में लगभग ५० करोड़ लोग हिंदी बोलते हैं। यह संसार की चौथी सबसे बड़ी भाषा है। आज [१४-सितम्बर] के दिन सन १९४९ में भारत की संविधान सभा ने ,देवनागरी लिपि में लिखी हिंदी को भारत की आधिकारिक भाषा स्वीकार किया । २६ जनवरी-१९५० को अनुच्छेद-३४३ के तहत इसे  राजभाषा के रूप में स्वीकृत किया।भारतीय संविधान में २२ भाषाओँ को शेड्यूल्ड भाषा का दर्जा प्राप्त है। इनमें से दो भाषाओँ -हिंदी और अंग्रेजीको सरकारी कामकाज के लिए मान्यता है। आजका दिन हिंदी की अस्मिता के लिए ,उसके साहित्यिक उत्थान के लिए और उसके वैश्विक प्रचार-प्रसार को सम्पर्पित है। आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकी युग में हिंदी भाषा का साहित्यिक और सांस्कृतिक पक्ष तो निरन्तर गतिशील है ,किन्तु विश्व की अन्य भाषाओँ के सापेक्ष हिंदी का तकनीकि पक्ष बहुत कमजोर है।  हम सभी का यह राष्ट्रीय दायित्व है कि सामाजिक राजनैतिक,आर्थिक ,डिजिटल,इल्क्ट्रोनिक एवम दृश्य-श्रव्य माध्यमों पर हिंदी की गरिमा बनाये रखने के लिए अपने-अपने हिस्से की सार्थक भूमिका अदा करें ।

   हिंदी दिवस पर सभी हिंदी प्रेमियों का -सादर अभिवादन   !  श्रीराम तिवारी - 

शनिवार, 10 सितंबर 2016

वामपंथी छात्र संघों को जेएनयू में विजय की शुभकामनाएं !



फ़िल्मी गाने का मुखड़ा बड़ा आकर्षक है कि ''दिल्ली तो दिल है हिंदुस्तान का 'और बाकई दिल्ली सिर्फ वर्तमान भारत की ही नहीं बल्कि अतीत में उस तमाम 'अखण्ड भारत' का' दिल' रही है, जिस पर लालकिले से मुगलों ने शासन किया और  वायसराय भवन से अंग्रेजों ने शासन किया। इसी दिल्ली के दिल में 'जेएनयू' विश्वविद्यालय वसा है। जेएनयू के दिल में  वामपंथी छात्र संघ की विचारधारा का निवास है।वामपंथी विचारधारा में धर्मनिरपेक्षता  , समाजवाद ,मानवतावाद और लोकतंत्र का निवास है। इसलिए जो लोग जेएनयू पर हमला करते हैं ,गालियाँ देते हैं,वे मानवता ,लोकतंत्र और भारत के शत्रु हैं !  

बुधवार, 7 सितंबर 2016

कायर का गीत -पेरुमल मुरुगन की कविता


कायर की वजह से

किसी पर मुसीबतें नहीं आती ,

दंगे नहीं होते किसी भी जगह पर ,

कुछ तबाह नहीं होता ,

कायर की वजह से !

तलवार नहीं निकालता  कायर,

और उसकी धार परखने के लिए ,

पेड़ों पर तलवार नहीं चलाता कायर !

क्योंकि उसे किसी पर वार नहीं करना है !

कायर कभी किसी को डरा कर नहीं रखता ,

कायर तो खुद डरता है अपने समय के अँधेरे से।

इसीलिये गीत निकलने लगते हैं आपने आप भीरु हृदय से।

कायर को  प्रकृति हमेशा  गले लगाती है ,

 जैसे कोई माँ अपने डरे हुए बच्चे को ले लेती है अपने आँचल में।

प्रकृति तो कायर के गले में डालती है जिंदगी का हार क्योंकि ,

मुसीबत से बचने के लिए कायर हमेशा अपनी हद में रहता है।

इसलिए वह अपने घर का कोना -कोना साफ़ रखता है और -

आपने कभी किसी कायर को खेल के मैदान में नहीं देखा होगा !

कायर कभी नफरत भरे राष्ट्रप्रेम का जोश लोगों में नहीं जगाता !

कायर कभी राजनीती में नही होता ,

किसी आदर्श विचारधारा को नहीं अपनाता ,

और वह किसी नेता का चमचा भी नहीं होता !

कायर किसी नेता के स्वागत  को तैयार नहीं रहता ,

उनके समर्थ में नारे भी नहीं लगाता ,

पैर  भी नहीं छूता!

कायर किसी का कुछ नहीं छीनता ,

वह उन्हें भी नहीं रोकता जो उसका सब कुछ छीन लेते हैं !

कायर नहीं करता  किसी असहाय अबला से बलात्कार ,

और किसी के शरीर को चोरी -छिपे देखता भी नहीं कायर !

कायर नहीं करता कभी किसी की निर्मम हत्या ,

वेशक ,कायर सोचता रहता है खुदकुशी के बारे में ,

और कायर ऐंसा कर भी लेता है  कभी-कभी !

कायर की वजह से ही बची है दुनिया अब तक ,

ओर बचा है 'मनुष्य',

वरना ये 'बहादुर' तो अब तक मिटा देते सारी दुनिया ,

और मनुष्यता भी !

[रचनाकार :-  पेरुमल मुरुगन -तमिल कवि ]






रविवार, 4 सितंबर 2016

जय श्री गणेश ,,,,,!



हिन्दू धर्मशास्त्र और लोक परम्परा में 'बिघ्नहर्ता ' श्रीगणेश का गुणानुवाद केवल धार्मिक पूजा पाठ तक ही सीमित नहीं है. बल्कि 'हिन्दू समाज' में श्रीगणेश की वंदना एक सकारात्मक सक्रियता का द्वैतक है। जिस तरह एक सच्चा मुसलमान कोई शुभ कार्य करता है तो 'बिस्मिल्लाह रहमान रहीम ,,,,,''शुरूं करता हूँ खुद के नाम पर ,,,,उसकी  रहमत के लिए'' ,,,,,इत्यादि अल्फाजों से प्रारम्भ करता है ,उसी तरह अधिकांस हिन्दू भी प्रत्येक शुभ और पवित्र कार्य  प्रारम्भ करने से पहले '' श्री गणेशाय नमः '' का ससम्मान  उच्चारण  करते हैं।  दरसल बिस्मिल्लाह रहमान रहीम ,,या ''श्री गणेशाय नमः ''  जैसे पवित्र सूक्त वाक्य के स्मरण मात्र से ,कोई भी इंसान अमानवीय कर्म करने की सोच भी नहीं सकता ! इन मानवीय सूत्रों में धर्मांधता या साम्प्रदायिकता नहीं है। बल्कि असामाजिक कृत्य पर जो नियंत्रण 'राज्य का कानून' या दण्ड संहिता नहीं क्र सकती वो काम ये 'पवित्र सूक्त' करते हैं। ये मनुष्य को पशु बनने से रोकने की क्षमता रखते हैं।

श्री गणेश भगवान् की पूजा अर्चना तो सनातन से चली आ रही है ,किन्तु उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारत के स्वाधीनता संग्राम में जिस तरह बंगाल के साधुओं -काली भक्तों ने ब्रिटिश राज के खिलाफ 'दुर्गा पूजा' को विस्तार दिया ,उसी तरह महाराष्ट्र में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने 'श्री गणेश पूजा' को विस्तृत रूप प्रदान किया। तब इन त्यौहारों के बहाने गुलाम भारत की जनता आत्मबल और जनशक्ति संचित किए करती थी।  लेकिन आजादी के बाद  इन त्यौहारों में  चन्दा चोरी का की ,राजनीतिक स्वार्थ की और अनैतिक पाखण्ड की भरमार है। अब इन त्योहारों को नियंत्रित करने के लिए जनता को खुद ही सचेत होना चाहिए। विगत दिनों श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर जब 'मटकी फोड़' की उचाई  और पार्टिसिपेंट की न्यूनतम आयु पर सुप्रीम कोर्ट ने दिशा निर्देश दिए  तो राजठाकरे जैसे लोगों ने कोर्ट की अवमानना भी कर डाली।  वैसे भी धर्म-मजहब तो व्यक्तिगत विषय है इसे सड़कों पर मनाना या इसके बहाने राजनीति करना दोनों ही अनैतिक हैं और धर्म को राजनीती में घुसेड़ना तो महापाप है। ये बात अलग है कि आज कल तो कुछ  मुनियों,बाबाओं को राजनीती में ही भगवान दिख रहे हैं। श्रीराम तिवारी  !

शुक्रवार, 26 अगस्त 2016

अब भारत भी एक अमीर देश हो गया है।


विश्व बैंक के एक सर्वे में दुनिया के अमीर देशों की सूची जारी हुई है। अमेरिका पहले स्थान पर है ,रूस नम्बर दो पर ,चीन नंबर तीन पर और भारत का नम्बर सातवाँ है। दुनिया के दो सौ बारह राष्ट्रों में यदि मेरे भारत का नम्बर सातवां  है तो यह कुछ कम उपलब्धि नहीं है। अपनी पीठ ठोकने लायक  बहुत है। काश ! रियो ओलम्पिक की पदक तालिकामें भी भारतका यही नंबर होता ! बहरहाल रियो ओलम्पिक में हुई  भारत -दुर्दशा की राष्ट्रीय शर्म को हवा में उड़ाकर, मैं  भारत के उदीयमान आर्थिक क्षितिज की ओर देख रहा हूँ।

विश्वके प्रमुख अमीर देशोंके साथ ७ वें नंबर पर भारतको देखकर ,मुझे सूझ नहीं पड़ रहा कि मैं हँसू या रोऊँ !क्योंकि पूँजीवादी विकास का एकमात्र अर्थ है कि इस विकास के दुष्परिणाम का फल देश की गरीब जनता को ही भुगतना पड़ता है। जैसे कि मिट्टी का ऊँचा टीला या चबूतरा बनाने के लिए आसपास की जमीन से ही मिट्टी खोदकर उस टीले को ऊंचा किया जाता है ,उसी तरह यदि  देश में कुछ लोग ज्यादा अमीर बनेगें तो उनके हिस्से में जो धन की बाढ़ आई वह धन उनके हिस्से का ही होगा जो कंगाल होते जा रहे हैं । यद्द्पि इस सूचना से मुझे खुश होना चाहिए था , कि भारत अब और जायद अमीर देश हो गया है। किन्तु इस खबर के वास्तविक अर्थ  की समझ रखने वाला कोईभी  सच्चा भारतीय  खुश होने के बजाय कुपित ही होगा। क्योंकि इस समृद्धि का अर्थ स्पष्ट है कि ज्यादा लोगों के आर्थिक शोषण से ही  चन्द अमीर घरानों -कार्पोरेट्स के जमाखातों में आर्थिक इस कदर लुभावने हो गए  कि लगा भारत  भी एक अमीर देश हो गया है। 

क्या बिडम्बना है कि सवा सौ करोड़ की आबादी वाले देश में दो-चार खरबपति ,दस- बीस अरबपति और मात्र ३%  इनकम टैक्स पेई हों ,जिस देश में ४०% जनता बीपीएल /एपीएल में झूल रही हो ,जिस देश की ६०% से ज्यादा आबादी अभी भी पीने योग्य पानी के लिए तरस रही हो ,जिस देश की ७०%जनता स्वास्थ सेवाओं से वंचित हो ,जिस देशकी आधी आबादी खुले में शौच के लिए मजबूर हो ,उस देश को यदि अमेरिका ,रूस ,चीन ,ब्रिटेन, जर्मनी,जापान,के बाद स्थान मिला हो तो खुश होने के बजाय सर पीटने का मन करता है।


गुरुवार, 25 अगस्त 2016

लोग पार्थसारथी - योगेश्वर श्रीकृष्ण को भूलकर माखनचोर के पीछे पड़े रहते हैं।


हिन्दू पौराणिक मिथ अनुसार  भगवान् विष्णु के दस अवतार माने गए हैं। कहीं-कहीं २४ अवतार भी माने गए हैं।  अधिकांस हिन्दू मानते हैं कि केवल श्रीकृष्ण अवतार ही  भगवान् विष्णु का पूर्ण अवतार है। हिन्दू मिथक अनुसार श्रीकृष्ण से पहले विष्णु का 'मर्यादा पुरषोत्तम' श्रीराम अवतार हुआ और वे केवल मर्यादा के लिए जाने गए। उनसे पहले परशुराम का अवतार हुआ,वे  क्रोध और क्षत्रिय -हिंसा के लिए जाने गए। उनसे भी पहले 'वामन' अवतार हुआ जो न केवल बौने थे अपितु दैत्यराज प्रह्लाद पुत्र राजा - बलि को छल से ठगने के लिए जाने गए। उनसे भी पहले 'नृसिंह'अवतार हुआ ,जो आधे सिंह और आधे मानव रूप के थे अर्थात पूरे मनुष्य भी नहीं थे। उससे भी पहले 'वाराह' अवतार हुआ जो अब केवल एक निकृष्ट पशु  ही माना जाता है। उससे भी पहले कच्छप अवतार हुआ ,जो समुद्र मंथन के काम आया। उससे भी पहले मत्स्य अवतार हुआ जो इस वर्तमान ' मन्वन्तर' का आधार  माना गया।डार्विन के वैज्ञानिक विकासवादी सिद्धांत की तरह यह 'अवतारवाद' सिद्धांत भी वैज्ञानिकतापूर्ण है।  

आमतौर पर विष्णु के ९ वें अवतार 'गौतमबुद्ध ' माने गए हैं, दशवाँ कल्कि अवतार होने का इन्तजार है। लेकिन हिन्दू मिथ भाष्यकारों और पुराणकारों ने श्री विष्णुके श्रीकृष्ण अवतार का जो भव्य महिमामंडन किया है वह न केवल  भारतीय मिथ -अध्यात्म परम्परा में बेजोड़ है ,बल्कि विश्व के तमाम महाकाव्यात्मक संसार में भी श्रीकृष्ण का चरित्र ही सर्वाधिक रसपूर्ण और कलात्मक  है। श्रीमद्भागवद पुराण में वर्णित श्रीकृष्ण के गोलोकधाम गमन का- अंतिम प्रयाण वाला दृश्य पूर्णतः मानवीय  है। इस घटना में कहीं कोई दैवीय चमत्कार नहीं अपितु कर्मफल ही झलकता है। अपढ़ -अज्ञानी  लोग कृष्ण पूजा के नाम पर वह सब ढोंग करते रहते हैं जो कृष्ण के चरित्र से मेल नहीं खाते। आसाराम जैसे कुछ महा धूर्त लोग अपने धतकर्मों को जस्टीफाई करने के लिए  कृष्ण की आड़ लेकर कृष्णलीला या रासलीला को बदनाम करते रहते हैं। श्रीकृष्ण ने तो इन्द्रिय सुखों पर काबू करने और समस्त संसार को निष्काम कर्म का सन्देश दिया  है।

आपदाग्रस्त द्वारका में जब यादव कुल आपस में लड़-मर रहा था । तब दोहद- झाबुआ के बीच के जंगलों में श्रीकृष्ण किसी मामूली भील के तीर से घायल होकर  निर्जन वन में एक पेड़ के नीचे कराहते हुए पड़े थे । इस अवसर पर न केवल काफिले की महिलाओं को भीलों ने लूटा बल्कि गांडीवधारी अर्जुन का धनुष भी भीलों ने  छीन लिया । इस घटना का वर्णन किसी लोक कवि ने कुछ इस तरह किया है :- जो अब कहावत  बन गया है ।

        ''पुरुष  बली नहिं  होत है ,समय होत बलवान।

        भिल्लन लूटी गोपिका ,वही अर्जुन वही बाण।।''

अर्थ :-  कोई भी व्यक्ति उतना महान या  बलवान नहीं है ,जितना कि 'समय' बलवान होता है। याने वक्त सदा किसी का एक सा नहीं रहता और मनुष्य वक्त के कारण  ही कमजोर या ताकतवर हुआ करता है। कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में, जिस गांडीव से अर्जुन ने हजारों शूरवीरों को मारा ,जिस गांडीव पर पांडवों को बड़ा अभिमान था ,वह गांडीव भी श्रीकृष्णकी रक्षा नहीं कर सका। दो-चार भीलोंके सामने अर्जुनका वह गांडीव भी बेकार साबित हुआ।  परिणामस्वरूप 'भगवान' श्रीकृष्ण घायल होकर 'गौलोकधाम' जाने का इंतजार करने लगे। 

पराजित-हताश अर्जुन और द्वारका से प्राण बचाकर भाग रहे  यादवों के स्वजनों- गोपिकाओं को भूंख प्यास से तड़पते  हुए  मर जाने का वर्णन मिथ- इतिहास जैसा चित्रण नहीं लगता। यह कथा वृतांत कहीं से भी चमत्कारिक  नहीं लगता। वैशम्पायन वेदव्यास ने  श्रीमद्भागवद में  जो मिथकीय वर्णन प्रस्तुत किया है ,वह आँखों देखा हाल जैसा लगता है। इस घटना को 'मिथ' नहीं बल्कि इतिहास मान लेने का मन करता है। कालांतर में चमत्कारवाद से पीड़ित,अंधश्रद्धा में आकण्ठ डूबा हिन्दू समाज इस घटना की चर्चा ही नहीं करता। क्योंकि इसमें ईश्वरीय अथवा मानवेतर  चमत्कार  नहीं है। यदि विष्णुअवतार- योगेश्वर श्रीकृष्ण एक भील के हाथों घायल होकर मूर्छित पड़े हैं तो उस घटना को अलौकिक कैसे कहा जा सकता है ? जो मानवेतर नहीं वह कैसा अवतार ? किसका अवतार ? किन्तु अधिकांस सनातन धर्म अनुयाई जन द्वारकाधीश योगेश्वर श्रीकृष्ण को छोड़कर , लोग पार्थसारथी - योगेश्वर  श्रीकृष्ण को भूलकर   माखनचोर  के पीछे पड़े हैं। लोग श्रीकृष्ण के 'विश्वरूप'को भी पसन्द नहीं करते उन्हें तो   'राधा माधव' वाली छवि ही भाती  है । रीतिकालीन कवि बिहारी ने कृष्ण विषयक इस हिन्दू आस्था का वर्णन इस तरह किया है :-

     मोरी  भव  बाधा  हरो ,राधा  नागरी  सोय।

    जा तनकी  झाईं परत ,स्याम हरित दुति होय।।

   या

'' मोर मुकुट कटि काछनी ,कर मुरली उर माल।

 अस बानिक मो मन बसी ,सदा  बिहारीलाल।। ''

अर्थात :- जिसके सिर पर मोर मुकुट है ,जो कमर में कमरबंध बांधे हुए हैं ,जिनके हाथों में मुरली है और वक्षस्थल पर वैजन्तीमाला है , कृष्ण की वही छवि  मेरे [बिहारी ]मन में सदा निवास करे !

कविवर रसखान ने भी इसी छवि को बार-बार याद किया है।

  'या लकुटी और कामरिया पर राज तिहुँ पुर को तज डारों '

या

 'या छवि को रसखान बिलोकति बारत कामकला निधि कोटि '

संस्कृत के भागवतपुराण -महाभारत, हिंदी के प्रेमसागर -सुखसागर और गीत गोविंदं तथा कृष्ण भक्ति शाखा के अष्टछाप -कवियों द्वारा वर्णित कृष्ण लीलाओं के विस्तार अनुसार  'श्रीकृष्ण' इस भारत भूमि पर-लौकिक संसार में श्री हरी विष्णु के सोलह कलाओं के सम्पूर्ण अवतार थे। वे न केवल साहित्य ,संगीत ,कला ,नृत्य और योग विशारद थे। अपितु वे इस भारत भूमि पर पहले  क्रांतिकारी थे जिन्होंने इंद्र  इत्यादि वैदिक देवताओं के  विरुद्ध जनवादी शंखनाद किया था। खेद की बात है कि श्रीकृष्ण के इस महान क्रांतिकारी व्यक्तित्व को भूलकर लोग उनकी बाल छवि वाली मोहनी मूरत पर ही फ़िदा होते रहे । श्रीकृष्ण ने  'गोवर्धन पर्वत क्यों उठाया ? यमुना नदी तथा गायों की पूजा के प्रयोजन क्या था ?  इन सवालों का एक ही उत्तर है कि श्रीकृष्ण प्रकृति और मानव समेत तमाम प्रणियों के शुभ चिंतक थे।  क्रांतिकारी  श्रीकृष्ण ने कर्म से ,ज्ञान से और बचन से मनुष्यमात्र को  नई  दिशा दी। उन्होंने विश्व को कर्म योग और भौतिकवाद से जोड़ा।  शायद इसीलिये उनका चरित्र विश्व के तमाम महानायकों में सर्वश्रेष्ठ है। यदि वे कोई देव अवतार नहीं भी थे तो भी वे इतने महान थे कि उनके मानवीय अवदान और चरित्र की महत्ता किसी ईश्वर से कमतर नहीं हो सकती ।

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर सभी मित्रों को शुभकानाएं ! जय माधव ,जय जगत ! जय जगदीश्वर !

श्रीराम तिवारी !

सोमवार, 22 अगस्त 2016

पाकिस्तान में 'थेंक्स'कहना भी देशद्रोह है।


विगत १५ अगस्त को भारत के प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने लालकिले से राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए कश्मीर में पाकिस्तान के हिंसक हस्तेक्षेप का जबाब देते हुए पाकिस्तान अधिकृत गिलगित ,बलूचिस्तान और पीओके में पाकिस्तानी फ़ौज द्वारा किये जा रहे दमन का उल्लेख किया था। पाकिस्तान के तीन बड़े निर्वासित बलूच नेताओं - बर्ह्मदग बुगती ,हर्बियार मरीम और करीमा बलूच ने तब मोदी जी को 'थैंक्स' कहा था। इस धन्यवाद से नाराज होकर पाकिस्तान सरकार ने इन तीनों नेताओं पर देशद्रोह के मुकद्दमें ठोंक दिए हैं । इस घटना से जाहिर होता है कि पाकिस्तान में  किसी  विरोधी देश या विरोधी व्यक्ति को धन्यवाद देने का  अधिकार नहीं है। दुनिया के किसी भी लोकतान्त्रिक देश में ,अमेरिका में , ब्रिटेन में या  भारत में रहने वाला हर शख्स अपने दुश्मन राष्ट्र की तारीफ  या अपने नेताओं की निंदा कर सकता  है । विगत दिनों अमेरिका के  विदेश सचिव ने तो रूसी राष्ट्रपति पुतिन की जमकर तारीफ़ कर डाली और पुतिनको ओबामासे बेहतर बताया। रोचक बात यह है कि यह रहस्योद्घाटन   खुद भारत के प्रधानमंत्री मोदी से शेयर किया गया ।

 भारत के कश्मीरी अलगाववादी - 'पत्थरबाजों'ने  कश्मीर में हजारों कश्मीरी पंडितों को मार डाला ,लाखोंको बेघर कर दिया ,उन्हें कश्मीर छोड़ने को मजबूर किया ,उनकी बहिन -बेटियों के साथ बुरा सलूक किया। इसके बदले में जेएनयू ने उन्हें सम्मान दिया। जबकि  कश्मीरी पुलिस और भारतीय फ़ौज पर यही दहशतगर्द अक्सर धोखे से हमले करते रहते हैं। किन्तु  भारतीय लोकतंत्र की महानता है कि फिर भी हम नरमाई से पेश आ रहेहैं।   'बातचीत' सुलह सफाई से काम ले रहे हैं। यदि ये कश्मीरी पत्थरबाज पाकिस्तान में होते तो अभी तक 'जहन्नुम को प्यारे हो गए होते ' ! इन उग्रवादियों को याद रखना चाहिए कि पाकिस्तान में 'थेंक्स'कहना भी देशद्रोह है।


  'रियो डी जेनेरियो' -ओलम्पिक समापन उपरान्त  जारी अंतिम पदक सूची के अनुसार अमेरिका अपने प्रथम स्थान पर नाबाद है। लेकिन जो देश  विगत चार ओलम्पिक खेलों से लगातार नंबर दो पर हुआ करता था ,वो चीन अब नंबर तीन पर आ गया है। उसकी जगह ब्रिटेन नंबर दो पर आ गया है। १९८०  के ओलम्पिक में  तो सोवियत संघ नंबर वन था। किंतु सोवियत विखण्डन के उपरान्त वाला रूस अब ५ -६ नंबर पर खिसक गया है। लेकिन यदि उसके बिखरे फेडरल राष्ट्रों -रूस ,यूक्रेन,जार्जिया,उजवेगस्तान,अजरवेजान,तुर्कमेनिस्तान इत्यादि  के मेडल एक साथ जोड़ें जाएँ ,तो यह कुल योग अमेरिका को मिले कुल पदकों  से भी ज्यादा होगा ।अर्थात 'सोवियतसंघ'  यथावत होता तो रियो ओलम्पिक में  वही नबर वन होता। और अमेरिका नंबर दो पर  ही होता।

उधर चीन के खिलाडियों  और चीन सरकार ने खेलों के लिए इस ओलम्पिक में जी जान लगा दी थी। चीनियों का मकसद था कि रियो में चीन नम्बर दो पर आये ;और अमेरिका को पीछे छोड़ दे। चीन चौबे से छब्बे तो नहीं बन पाया किन्तु दुब्बे जरूर बन गया। क्योंकि  ब्रिटेन  ने दूसरा स्थान छीन लिया है। जबकि १९९६ में ब्रिटेन को सिर्फ एक स्वर्ण पदक मिला था। उससे नसीहत लेकर ब्रिटिश सरकार ने खेल विषयक नीतियाँ और कार्यकर्मों में कुछ खास परिवर्तन किये थे , परिणामस्वरूप रियो ओलम्पिक में ब्रिटिश खिलाडियों ने चीनी खिलाडियों से भी बेहतर प्रदर्शन  किया है । और अब  ब्रिटेन नंबर दो पर है । भारत की मोदी सरकार ने विगत सवा दो साल में जो कुछ किया उसका परिणाम सबके सामने है।  पहले आधा दर्जन मेडल लाया करते थे ,इस बार केवल दो पदकों में ही सरकार और खेल प्रेमी गदगद हो रहे हैं। पुराने और परम्परागत भारतीय भृष्ट  खेल प्रबधन पर कोई लगाम नहीं लगाई गयी।  पुराने भृष्टों की जगह अपने 'संघनिष्ठ' नए भृष्ट  अफसरों और मक्कार नेताओं  को खेल प्रबधन सौंप कर  केंद्र सरकार चैन की नींद सोती रही ।  सवा दो साल केवल ठकुर सुहाती ही बर्बाद कर दिए !अब दो पदकों को देख-देख ऐंसे किलक रहे मानों क्रिकेट विश्व कप में पाकिस्तान को हरा दिया हो !श्रीराम !

रविवार, 21 अगस्त 2016

भृष्ट सिस्टम -मुर्दाबाद


   सवा सौ करोड़की आबादी वाला हमारा प्यारा भारत -दुनिया का तथाकथित सबसे बड़ा लोकतंत्र -जिंदाबाद !

   केंद्र में ऊर्जावान प्रधानमंत्री श्री मोदीजी और उनके नेतत्व में विशुध्द 'राष्ट्र्वादी' एनडीए सरकार-जिंदाबाद !

    रियो ओलम्पिक खेलों पर दो सौ करोड़ रूपये  खर्च करने वाले मंत्री ,अफसर,कोच -खिलाड़ी -जिंदाबाद !

   अपने खिलाडियों की जीत के लिए -यज्ञ , हवन ,कीर्तन,मन्नत ,पूजा -पाठ  करने वाले शृद्धालु -जिंदाबाद !

    कासे का एक पदक जीतनेवाली साक्षी और चाँदी का मेडल जीतने वाली संधू और उनके कोच -जिंदाबाद !

   आजादीके सत्तर साल बाद रियो ओलम्पिक में भारतको एक भी स्वर्णपदक नहीं मिला भृष्ट सिस्टम -मुर्दाबाद !

गुरुवार, 18 अगस्त 2016


  भाव  भगत भादों नदी,बढ़त-बढ़त बढ़ जाय।

  सरिता वही सराहिये ,जो जेठ मास  ठहराय।। ...[अज्ञात]


अर्थ :- मानवीय  सम्बन्धों की सार्थकता तभी है, जब बुरे बक्त में भी भाईचारा और मित्रताका निर्वहन हो। 'सुख के सब साथी ,दुःख में न कोय' के सिद्धांत को झुठलाकर ,जो लोग अपने बेबस -लाचार ,दुखी -मित्रों,बन्धु -बांधवों से मुख नहीं मोड़ते और सदा साथ निभाते हैं ,उनमें मानवीय संवेदनाओं की अविरल धारा निरन्तर प्रवाहमान होती रहती है। यह मानवीय व्यवहार और सामाजिक सरोकार -सदानीरा गंगा-ब्रह्मपुत्र नदियों की मानिन्द हुआ करता है,जो जेठ के महीने में भी कल -कल बहा करतीं हैं। जो व्यक्ति केवल  'अच्छे दिनों' का ही बगलगीर है और बुरे बक्त में रंग बदलता है  वह बरसाती नाले या गटर की तरह होता है,जैसे भादों के महीने में तो नाले और गटर भी 'नदी;होने का भ्रम पैदा करते हैं किन्तु जेठ महीने में वहाँ धुल उड़ा करती है।  श्रीराम तिवारी ! 


बुधवार, 10 अगस्त 2016

शीला दीक्षित से सीखो -केजरीवाल


दिल्ली हाई  कोर्ट ने  एल जी [उपराज्यपाल]को दिल्ली क्षेत्र की प्रभुसत्ता के लिए सर्वशक्तिमान बताया है,उससे पहले एक अन्य प्रकरण में दिल्ली पुलिस को भी दिल्ली सरकार के प्रति 'अनुत्तरदायी' बताया है। एक अन्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी आप' के मुख्यमंत्री  केजरीवाल और उनकी सरकार को 'केंद्र सरकार 'के कर्मचारियों की जाँच नहीं करने का निर्देश दिया है. भृष्टाचार में लिप्त कर्मचारियों-अधिकारियों पर किसी भी तरह की दंडात्मक कार्यवाही  से भी वंचित किया है। कहने का लुब्बो-लुआब ये है कि न्यायपालिका ने 'आप'की  दिल्ली सरकार को 'शून्य' घोषित कर  दिया है। 'आप ' नेता केजरीवाल  जी कोई काम नहीं कर पाने के कारण घोर अशांत हैं।

दिल्ली 'राज्य' की संवैधानिक स्थिति तब भी यही थी ,जब शीला दीक्षित  दिल्ली की मुख्य मंत्री थीं। उन्होंने भी दिल्ली राज्य को 'राज्य का पूर्ण दर्जा 'माँगा था ,किन्तु उन्होंने उस मांग को असफलता का बहाना नहीं बनाया। शीला जी ने १५ साल लगातार  दिल्ली  पर शासन किया और इतने  काम किये हैं कि  गिनना मुश्किल है और उन्होंने कभी किसी अदालत में अधिकार नहीं होने या एल जी के असहयोग का रोना भी नहीं रोया। दिल्ली पुलिस से जरुर वे परेशान रहीं ,किन्तु विकास कार्य रुकने नहीं दिए। इसलिए सुझाव है कि शीला दीक्षित से भी कुछ सीखो -अरविन्द केजरीवाल ! श्रीराम तिवारी

मंगलवार, 2 अगस्त 2016

मोदी जी -'पाहुनों से साँप नहीं मरते '


सुप्रसिद्ध साहित्यकार  महाश्वेता देवी के निधन पर देश और दुनिया के प्रबुद्ध वर्ग ने श्रद्धा सुमन अर्पित किये, किसी ने शब्दांजलि ,किसी ने श्रद्धांजलि और  किसी भावांजलि व्यक्त की । भाजपा नेताओं और उनकी सरकार के मंत्रियों में तो श्रद्धांजलि देने की होड़  सी मच गई।  इस होड़ की हड़बड़ी में बड़ी गड़बड़ी हो गई।  विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने ट्ववीट किया कि महाश्वेता देवी की दो साहित्यिक कृतियों -'प्रथम प्रतिश्रुति' और 'बकुल कथा 'से उन्हें बहुत प्रेरणा मिली है । उनके इस ट्वीट को लगभग चार सौ ट्वीटर  'विद्वानों' ने लाइक भी कर  दिया,लेकिन सुषमा जी को जब किसी शुभचिंतक ने सूचित किया कि ये दोनों रचनाएँ तो आशापूर्णा  देवी की हैं ,तो उन्होंने अपने शोक संदेस को टवीटर से हटा लिया। दूसरा वाक्या भाजपा अध्यक्ष श्री अमित शाह जी का है ,जो  काफी रोचक है। टवीटर पर महाश्वेता देवी को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए अमित शाह जी ने  'हजार  चौरासी की माँ ' और  'रुदाली' को  महाश्वेता देवी  की अत्यंत प्रभावशाली रचनाएँ बताया । अमित शाह जी को शायद मालूम ही नहीं कि 'हजार चौरासी की माँ'  से यदि वे प्रभावित हैं तो वे भाजपा में  क्यों हैं ? उन्हें तो  नक्सलवादियों  के साथ या माओवादियों के साथ होना चाहिए था !क्योंकि 'हजार चौरासी की माँ ' नक्सल आंदोलन की  प्रबल पक्षधर है।

 दरसल भाजपा और संघके बौध्दिकों में वैचारिक दरिद्रता और द्वंदात्मक  चिंतन की कंगाली है, वे गुलगुले तो  गप-गप खा जाते हैं ,किन्तु गुड़ खानेके परहेज  का पाखण्ड करते हैं। उन्हें जहाँ कहीं कोई नजमा हेपतुल्लाह या जगदम्बिका पाल  जैसा विद्रोही कांग्रेसी दिखा ,जहाँ कहीं कोई सुरेश प्रभु जैसा विद्रोही  शिवसैनिक  दिखा ,जहाँ कहीं कोई पथभृष्ट जीतनराम मांझी दिखा ,कोई   'सुधारवादी वामपंथी' समाजवादी  दिखा कि भाजपा वाले उसे अपने 'पाले'में घसीट लाने की जुगत में भिड़ जाते हैं। केरल विधान सभा चुनाव  में माकपा- एलडीएफ की जीत पर मोदी जी ने सीपीएम पार्टी को नहीं, पिनराई  विजयन को नहीं, बल्कि अच्युतानंदन को  फोन पर बधाई दी।  क्योंकी मोदीजी को मालूम था  कि बुजुर्ग कामरेड अच्युतानंदन  पिनराई  विजयन और पार्टी नेतत्व से 'नाराज' हैं। भाजपा वाले  पक्के घर फोड़ू हैं। ये लोग किसी मेट्रिक फ़ैल को मंत्री ,किसी असफल गुमनाम कलाकार को एफटीटीआई का अध्यक्ष बना देंगे और किसी काले कौवे को 'भारत रत्न ' बना लेंगे। किन्तु ज्योति वसु, माणिक सरकार का सम्मानपूर्वक नाम ,सपने में भी नहीं लेंगे। क्योंकि 'संघ' वाले अपने अलावा और किसी विचारधारा का 'अनुशासन' पसन्द करते !

हिंदुत्ववादी वीरों ने  'असहिष्णुता'और अभिव्यक्ति  के मुद्दे पर नामवरसिंह द्वारा अलग -थलग स्टेण्ड लेने पर  उनकी  भूरि -भूरि प्रशंसा की है , नामवरसिंह के जन्म दिन पर मोदी जी ने बधाई सन्देश भेजा और देश के गृह मंत्री राजनाथसिंह जी ने खुद उपस्थित होकर शिद्दत से नामवरसिंह का जन्म दिन मनाया ! लोगों के मन में  प्रश्न उठ रहे हैं  कि  क्या यह 'भाजपा'का हृदय परिवर्तन है ? क्या ऐंसा करके भाजपाई नेता उन मार्क्सवादी वामपंथी -नामवरसिंह के लिखे हुए को  मिटा सकते हैं। और नामवरसिंह ने ऐंसा  कहाँ-कब-क्या लिख दिया जो गोडसे या गोलवलकर के 'चिंतन'से मेल खाता है ? यदि नामवर के बहाने भाजपा नेताओं ने 'सबका साथ -सबका विकास 'मन्त्र पर अम्ल किया है , तब तो ठीक है। किन्तु उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि 'भरोसे की भैंस पाड़ा नहीं जनती 'और 'नटवन खेती -बहुअंन घर नहीं चलते '!'पाहुनों से साँप नहीं मरवाते 'अनेक प्रमाण हैं जहाँ 'संघ' और भाजपा ने पथभृष्ट दलबदलू कांग्रेसी , दिग्भृमित वामपंथी ,उजबक समाजवादी और महत्वाकांक्षी  शिवसैनिक को अपना 'कर्ण 'बनाया है ! मोदी जी खुद दुर्योधन की तरह इन सभी को 'अंगराज'कर्ण बनाते जा रहे हैं ,उधर उनके 'वैचारिक सहोदर' दलित -उत्पीड़न और नारी विमर्श में दुशासन की भूमिका अदा किये जा रहे हैं !  श्रीराम तिवारी

शनिवार, 30 जुलाई 2016


भोपाल  में शनिवार -दि.३०-७-१६, राष्ट्रीय स्वयम सेवक संघ और भाजपा वालों की जॉइंट मीटिंग सम्पन्न हुई। मीटिंग में उपस्थित 'संघ वालों' ने अपनी समीक्षा रिपोर्ट  में भाजपा सरकार को असफल बताया और वह रिपोर्ट प्रेस को भी रिलीज कर दी। मेरी नजर में इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं। हालाँकि संघ की समीक्षा रिपोर्ट में  सिंहस्थ भृष्टाचार,व्यापम भृष्टाचार या दिलीप बिल्डकॉन नुमा  भृष्टाचार पर एक शब्द  नहीं कहा गया,किन्तु फिर भी 'संघ' वालों ने शिवराज सरकार को उसका असफलता का आइना जरूर दिखाया  है। समीक्षा रिपोर्ट में साफ़ किया गया है कि ''मध्यप्रदेश सरकार का कोई भी काम जमीन पर नहीं दिख रहा है और जनाधार भी खिसक रहा है ''! इसके उलट  शिवराज के पिछलग्गू अधिकारी ,मंत्री एवम पार्टी नेता अखवारों में ,टीवी पर और सोशल मीडिया पर जोर-जोर से काल्पनिक विकास और उपलब्धियों का ढपोरशंख बजाये जा रहे हैं। सवाल है कि संघ और भाजपा के इस 'राग छ्त्तीसी'आकलन में उन लोगों के क्या  विचार  हैं  जो 'संघ' परिवार के अंध भक्त हैं ?जो लोग सोशल- इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में  भृष्ट भाजपा सरकारों के पक्ष में खड़े हैं ,वे इस समीक्षा विमर्श के मुद्दे पर  'संघ' और भाजपा में से किसी एक को ही चुन सकते हैं ! यदि वे 'संघ 'समर्थक हैं तो संघ की समीक्षा का समर्थन करें। और भाजपा की असफलता पर हल्ला बोलें। यदि वे भाजपा समर्थक हैं तो 'संघ' की समीक्षा' को रद्दी की टोकरी में डालने का ऐलान करें।  और संघ के अंध भक्त होने का पाखण्ड बन्द करें !

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

तानशाह पैदा नहीं होते अपितु जनता द्वारा पैदा किये जाते हैं।

परिवार में ,कुटुंब -कबीले में ,समाज में या मुल्क में  किसी व्यक्ति विशेष के शौर्य ,अवदान और उदात्त चरित्र के कारण उस व्यक्ति को 'अवतार' अधिनायक या  'हीरो'मानने की परम्परा दुनिया में पुरातनकाल से रही है। लेकिन भारत में अजीब स्थिति है। यहाँ तो बिना किये धरे ही ,बिना त्याग बलिदान वाले लोग, अपनी चालकी ,धूर्तता और बदमाशी से 'हीरो' या अधिनायक बनते देखे गए हैं। वास्तविक हीरो ,बलिदानी या नायक इतिहास के हासिये से भी गायब कर दिए जाते हैं। जैसे कि मध्यप्रदेश के व्यापम सिस्टम के चलते हजारों वास्तविक 'नायक' वेरोजगार हैं या मनरेगा की मजदूरी कर रहे हैं। जबकि नकली अभ्यर्थी और बदमाश- मुन्नाभाई लोग अफसर- बाबू बनकर सत्ता से ऐसे चिपक गए कि देखकर गोह भी लाज जाए।

यही स्थिति पूँजीवादी -दक्षिणपंथी राजनीति की है। यही स्थिति जातीय -सामाजिकआन्दोलनों की और धार्मिक आयोजनों  की भी है। यही स्थिति स्वाधीनता सेनानियों की है। यही स्थिति मीसा बंदियों की है।हर क्षेत्र में चालाक और काइयाँ किस्म के लोग लाइन तोड़कर जबरन घुस जाते हैं। यही 'दवंग'लोग विद्या विनय सम्पन्न बेहतरीन युवा शक्ति को कुंद करदेते हैं। कुछ तो उन्हें धकियाकर किनारे लगा देतेहैं, खुद ही व्यवस्था के 'महावत' बन जातेहैं।  बड़ेखेद की बात है कि समाज के कुछ उत्साही लोग इन बदमाशों को ही हीरो मान लेते हैं। कुछ तो कालांतर में अवतार भी मान लिए  जाते हैं। इन नकली 'हीरोज' के कारण ,नकली अवतारों के कारण ही अतीतके झगडे कभी पीछा नहीं छोड़ते। जिन अवतारों ,पीर पैगम्बरों के कारण तमाम आधुनिक पीढ़ियाँ आपस में लड़ती -झगड़ती रहें उन पर सवाल उठाना भी गुनाह माना जाता है। भारत-पाकिस्तान के बीच जो अनवरत वैमनस्य चल रहा है, और तमाम देशों में  जो सामाजिक ,जातीय संघर्ष जारी है ,भारतमें आरक्षण वादियों और अनारक्षणवादियों के बीच जो हो रहा है ,वह सब इसी अतीत की काली छाया का परिणाम है। अचेत और साधारणजन भी इस स्थिति के लिए पर्याप्त जिम्मेदार हैं , वे इन नकली नायकों' की जय-जय कार करने में व्यर्थ ही अपनी ऊर्जा व्यय करते रहते हैं। बेईमान-बदमाश -नायकों के पीछे जय-जयकार करने वाले लोग उन  बगल बच्चों की तरह होते हैं जो हाथी के पीछे -पीछे ताली बजाकर अपना मनोरंजन कर लेते हैं। इतिहास साक्षी ही कि जनता की गफलत के कारण ही अक्सर चालाक लोग लोकप्रियता के शिखर पर पहुँच जाते हैं। तानाशाह यहीं से पनपता है और अधिनायकवाद यहीं से जन्म लेता है।  


भारत की वर्तमान छल-छदम और सामाजिक विद्वेष की राजनीति से बदतर ,दुनिया में अन्य कोई राजनैतिक व्यवस्था नहीं है। वैसे तो इस पूंजीवादी-सामंती व्यवस्था का  विस्तार विश्वव्यापी है किन्तु जिस तरह भारत के   गरीब मतदाताओं के वोट पाने के लिए नेता -नेत्रियाँ  अनैतिक पाखण्ड करते हैं ,जिस तरह अपनी वंशानुगत योग्यता को जब-तब आम सभाओं में पेश करते रहते हैं। यह विशेष राजनैतिक योग्यता दुनिया में शायद ही कहीं अन्यत्र मिलेगी ! यहाँ चाय बेचने से लेकर ,भैंसें चराने वाले तक ,रंगदारी बसूलने से लेकर खुँखार डकैतों की गैंग में शामिल होने वाले तक विधान सभाओं में और लोक सभा में पहुँचते रहे हैं। यहाँ पैदायशी दलित-पिछड़े होने से लेकर धर्म-मजहब का ठेकेदार होने तक और जात -खाप से लेकर अपराध जगत का बाप होने तक की तमाम नैसर्गिक योग्यता प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।आजादी के तुरन्त बाद मुबई से लेकर दुबई तक और झुमरी तलैया से लेकर दिल्ली तक राजनीति में अपराधियों का बहुत वर्चस्व रहा है। सिर्फ लाल डेंगा जैसे अलगाववादी ही नहीं बल्कि रतन खत्री ,हाजी मस्तान,दाऊद,छोटा शकील ,बड़ा राजन ,अलां घोड़ेवाला ,फलां दारूवाला और ढिकां सट्टा वाला जैसे 'देशद्रोही' ही भारत की राजनीति संचालित करते आ रहे हैं। धरती पकड़ अपराधियों- दवंगों के आगे अधिकांस सज्जन नेता,ईमानदार पुलिस अफसर और कानून के रखवाले भी अपराध जगत की गटरगंगा में डुबकी लगाते रहे हैं। फिल्म वाले - निर्माता,निर्देशक ,फायनेंसर ,हीरो, हीरोइन और वितरक तो इस अपराध जगत में टूल्स की तरह इस्तेमाल होते रहे हैं। वैसे तो राजनीति की पूरी की पूरी हांडी ही काली है किन्तु यूपी, बिहार, महाराष्ट्र ,आंध्र,कर्नाटक ,पंजाब के अधिकांस राजनेता इस अपराध जगत में  ज्यादा कुख्यात रहे हैं।  तानशाह पैदा नहीं होते अपितु जनता द्वारा पैदा किये जाते हैं।

 भारत में   'बहुजन समाज' के वोट हड़पने के लिए ,दलित-पिछड़ेपन के जातीय विमर्श को बड़ी चालाकी और धूतता से हमेशा जिन्दा रखा जाता है। कुछ नेता-नेत्रियाँ न तोआर्थिक नीति जनते हैं, न विकासवाद जानते हैं ,न उन्हें 'राष्ट्रवाद' से कोई मतलब है  वे तो केवल सत्ता सुख के लिए  अपनी जातीय वैशाखी पर अहोभाव से खड़े हैं। उनके   तथाकथित नॉन ट्रान्सफरेबिल वोटर्स भी बड़े खब्ती, कूढ़मगज और भेड़िया धसान होते  हैं। उन्हें भारतीय राष्ट्रवाद,एकता -अखण्डता और देश के सर्वांगणींण वैज्ञानिक विकास से कोई लेना देना नहीं। उन्हें सिर्फ अपने नेता -नेत्री की चिंता है जो उन्हें 'आरक्षण' की वैशाखी पकड़ाए रखने का वादा करता/करती है !

कुछ दलितवादी नेताने बहुजन समाजको वर्ग चेतना [Educate,Agitate,Orgenize] से लेस करने के,उन्हें जात -एससी/एसटी के रूप में पर्मेनेंट वोटों का भंडार बना डाला है। उन्होंने शोषित-दलित उत्थानके बहाने जातीयता की राजनीति को अपनी निजी जागीर बना डाला है। जातीयतावादी नेताओं द्वारा जाती को राजनीति का केंद्र बना लेने से  भारतीय समाज में विध्वंशक जातीय संघर्ष की नौबत आ गयी है । सत्ता के भूंखे जातिवादी-मजहबपरस्त नेताओं ने दमनकारी जातीयताके खिलाफ संघर्ष छेड़ने के बजाय उसे सत्ता प्राप्ति का राजनैतिक अवलम्बन बना लिया गया है। इन हालात में भारत जैसे देश में किसी सकारात्मक क्रांति की या किसी कल्याणकारी पुरुत्थान की कोई समभावना नहीं है।

अतएव कभी कभी तो लगता है कि वर्तमान जातीय-मजहबी नेताओं के चोंचलों से तो  'यूटोपियाई पूँजीवाद'ही बेहतर है !कमसेकम पूँजीवदी -विज्ञानवादी व्यवस्था में 'दान-पूण्य'धर्म-कर्म का आदर्श आचरण तो जीवित है। खबर है कि भारत के प्रख्यात हीरा व्यापारी सावजी ढोलकिया ७ हजार करोड़ की सम्पत्ति के मालिक हैं। उन्होंने गत वर्ष अपने कर्मचारियों को दीवाली पर तोहफे में फ्लेट और कारें दीं थीं।  जबकि इन्ही ढोलकिया जी ने अपने एकलौते बेटे को खुद के बलबूते पर अपनी हैसियत निर्माण के लिए घर से खाली हाथ निकाल दिया था। उन्होंने अपने बेटे को पाथेय के रूप में केवल  स्वावलंबी होने का मन्त्र दिया था। उनका बेटा  अभी भी कोचीन की किसी कम्पनी में  ४ हजार रुपया मासिक की प्रायवेट नौकरी कर रहा  है। उसे यह नौकरी हासिल करने के लिए भी तकरीबन  ६० बार झूँठ बोलना पड़ा। और कई दिन तक एक टाइम अधपेट भोजन पर ही रहना पड़ा । क्योंकि पिता ने  घर से चलते वक्त उसे जो ७०० रूपये दिए थे,उन्हें खर्च करने की मनाही थी। वे रूपये  उसके पास अभी भी सुरक्षित हैं और पिताजी ने यही आदेश दिया था की यह पैसा खर्च मत करना ! खुद कमाओ और खर्च करो !   'स्वावलंबी बनो '! यदि सावजी ढोलकिया जैसे पूँजीपति इस देश के नेता बन जाएँ और प्रधानमंत्री बना दिए जाएँ
तो भारत के गरीब किसान-मजदूर और सर्वहारा को भी शायद इससे कोई इतराज नहीं होगा। यदि ढोलकिया जैसे  राष्ट्रीय  पूँजीपति वर्ग के हाथों में देश की सत्ता देदी जाए तो शायद यह देश ज्यादा सुरक्षित होगा ,ज्यादा गतिशील और विकासमान हो सकता है !  

श्रीराम तिवारी

बुधवार, 20 जुलाई 2016

पंजाब में ''हंसना मना है ''!


 पंजाब में  शिरोमणि अकालीदल -भाजपा गठबंधन की बदहाली किसी से छिपी नहीं है। बादल परिवार की निजी 'शहंशाही तड़क -भड़क 'ने  पूरे पंजाब को कर्ज के गर्त में धकेल दिया है। युवाओं में  बेतहाशा बढ़ती जाती नशे की लत और वेरोजगारी ने वर्तमान पंजाबको  'उड़ता पंजाब' बनाकर रख दिया है। उधर कांग्रेस की आपसी खींच -तान और सिरफुटौव्वल के कारण अमरिंदर सिंह  का मार्ग भी कंटकाकीर्ण  ही है। कांग्रेसी नेतत्व तो पहले से ही अपनी दागदार छवि से आक्रान्त और पथरीला है। लेकिन कहावत है कि 'उम्मीद पर दुनिया कायम है ' पंजाब के लोगों को यह खुशख़बरी ही है कि राज्यसभा सीट को लतियाकर 'सिध्दू पाजी'  पंजाब  विधान सभा के आगामी चुनावों में  सक्रिय  भूमिका अदा करेंगे।  यदि  वे खुदा -न -खास्ता विधान सभा में पहुंच जाते है या मंत्री पद पा जाते हैं तो पंजाब  विधान सभा और पंजाब का मौजूदा ग़मगीन  चेहरा फिर से खिल उठेगा।उधर कॉमेडियन से नेता बने भगवंत मान और इधर सिध्दू पाजी जब आगामी चुनावों में अपने -हास्य-परिहास का भरपूर प्रदर्शन करेंगे तो पंजाब की राजनीति में फिर से 'बल्ले-बल्ले 'की धूम होगी । अभी तो हालात  इतने बुरे हैं कि पंजाब में ''हंसना मना है ''! एसजीपीसी द्वारा 'संता -बंता 'चुटकुलों पर प्रतिबन्ध की मांग- सुप्रीम कोर्ट द्वारा मान लेने से और अंदर-अंदर अलगवावाद-आतंकवाद की सुलगती आग ने न  केवल पंजाब  को बल्कि  पूरे भारत को ही ग़मों के महासागर में धकेल दिया है। श्रीराम तिवारी   

सोमवार, 23 मई 2016

'सनातन धर्म' एक अद्वतीय वैज्ञानिक जीवन दर्शन है।



यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि मनुष्य की ' विचार शक्ति' की महत्ता सर्वोपरि है। इसके दुरूपयोग से यदि इंसान हैवान या शैतान बन सकता है ,तो इसके सदुपयोग से इंसान दुनिया में इंसानियत का झंडा बुलंद कर सकता है। निसन्देह इस तथ्य की वैज्ञानिक स्थापना का श्रेय वैदिक मन्त्र दृष्टा ऋषियों को ही जाता है। सबसे पहले इन्होंने   ही  यह जाना कि मनुष्य अपने अवचेतन मन की वृत्तियों को पुन्जीभूत करके अन्य प्राणियों पर  काबू कर सकता है। भले ही इन ऋषियों ने 'विचार' और पदार्थ के उचित संयोग को 'यज्ञ'कहा हो,उससे उतपन्न ऊर्जा को दैवीय प्रसाद माना हो ,किन्तु यह परमसत्य है कि वैदिक ऋषियोंने ही सबसे पहले यह जानाकि वैचारिक ऊर्जा के द्वारा प्राकृतिक तत्वों के स्वभाव को और प्राणिमात्र के व्यवहार को  बदला जा सकता है।आर्य ऋषियों की इन खोजों को यदि तत्तकालीन कबीलाई मानवीय जीवन की आचार संहिता से नत्थी करदें तो वह 'वैदिक धर्म'का आधार कहा जा सकता है। जिसे कुछ लोग 'हिन्दू धर्म' कहते हैं,वह किसी एक व्यक्ति का 'इल्हाम'या 'बोध'नहीं है।और  यह किसी बर्बर कौम या यायावर कुटुंब-कबीले का हिंसक 'चाल -चरित-चेहरा' नहीं है।

वास्तव में यह तो एक सनातन परम्परा है। यह वैदिक दर्शन तो डार्विन के विकासवादी सिद्धान्त की तर्ज पर आर्यों - भारतीयों के वैज्ञानिक क्रमिक विकास को ही प्रस्तुत करता है। अद्वतीय वेदांत दर्शन के रूप में यह अन्य पंथ ,दर्शन,मजहब और आस्थाओं से अलहदा है। चूँकि यह क्रमिक विकास की लंबी परम्परा याने सनातन  से है इसलिए इसे 'सनातन धर्म' कहा जाता है । मेरा दावा है कि यह सनातन धर्म  एक अद्वतीय वैज्ञानिक जीवन दर्शन है।इसलिए यह न तो मार्क्स के शब्दों में 'अफीम 'है ,और न ही यह साम्यवाद के नजरिये से इसे अमानवीय कहा जा  सकता है। भारतीय उपमहाद्वीप के कुछ तथाकथित अवैदिक मत-पन्थ -दर्शन  भी केवल कुछ खास व्यक्तियों की निजी 'अहमन्यता ' का परिणाम हैं। इनमें से किसी ने  कुछ भी नया नहीं कहा। नए धर्म, पन्थ-दर्शन के नाम पर मनुष्य मात्र के समक्ष जो कुछ परोसा गया वह केवल शब्दों की बाजीगरी मात्र है। वेदों या सनातन धर्म से बाहर जो कुछ भी कहा गया है ,वह सब वैदिक वाङ्गमय में पहले से ही मौजूद था। सम्भवतः आदि शंकराचार्य ने यही सिद्ध करके अपनी 'आध्यात्मिक दिग्विजय'के झंडे सारे भारतीय उपमहाद्वीप में गाड़े होंगे ।

 चूँकि प्रकृति ,पदार्थ और चेतना के साहचर्य की महत्ता स्थापित करने वाले तथा  प्रकृति को मनुष्य के अनुकूल बनाने वाले वैदिक मन्त्रों की सर्जना में कहीं कोई दैवीय चमत्कार नहीं है। वेदमंत्रों ,उपनिषद सूत्रों ,आरण्यक-श्लोकों ,ब्राह्मण संहिताओं में कहीं किसी तरह की कोई अंध आस्थाके निशान मौजूद नहीं हैं। चारों वेदों ,तमाम उपनिषदों और वेदांत दर्शन में कहीं भी अमानवीयता या अवैज्ञानिकता नहीं हैं। वैदिक वाङ्गमय में पाषणयुग से लेकर पूर्व वैदिक काल तक की हजारों साल की लंबी आध्यात्मिक यात्रा का क्रमिक विकास दृष्टव्य है। वेशक पुराणों में बहुत घपला है किन्तु वेदांत दर्शन में तो  विशुद्ध मानवीय दर्शन और परा -मनोविज्ञान का ही पसारा है। मूलतः वेदांत दर्शन को ही समग्र हिन्दू धर्म  का सारतत्व कहा जा सकता है। कालांतर में रघुवंश ,यदुवंश और कुरुवंश जैसे सामन्तों की कुलीनता ने भी मानवीय मूल्यों के झंडे गाड़े हैं। यदि हरिश्चंद्र-तारामती का यह सब मिथ है

इस प्रक्रिया का आस्तिकता या नास्तिकता से कोई वास्ता नहीं है ।धर्म-मजहब ,ईश्वर-आत्मा से भी इसका कोई सरोकार नहीं है। यह मानसिक संवेदनाओं की ऊर्जा का उत्सर्जन है। और उसकी मशक्क्त का बहिर्जगत में प्राकट्य है। प्रायः हर जागरूक मनुष्य यह जानता है कि यदि वह अपने विचारों के संकेद्रण पर ध्यान दे तो उसके  विचार ही शब्द बन जाते हैं। मनुष्य यदि उन शब्दों पर ध्यान दे तो वे कर्म बन सकते हैं। याने कर्म का कारण शब्द है और शब्द का कारण 'विचार' है और 'विचार'का कारण मानव मस्तिष्क है।  विचार शक्ति से ही दुनिया में वैज्ञानिक क्रांति हुई है। विचार शक्ति से ही राजनैतिक -सामाजिक -सांस्कृतिक क्रांतियाँ सम्पन्न हुईं  हैं।  तमाम जेहादियों -धर्मांध पाखंडियोंने केवल और केवल  भ्रान्तियाँ भी उतपन्न कीं हैं। हिन्दू धर्म कोई मत-पंथ या मजहब नहीं है बल्कि एक वैज्ञानिक जीवन दर्शन है अपौरुषेय है।

विचार शक्ति का सिद्धांत जब नकारात्मक संदर्भ में सही हो सकता है तो सकारात्मक अर्थ में सही क्यों नहीं होगा ? बीसवीं शताब्दी के नाजीवादी -फासीवादी हिटलर का मंत्री गोयबल्स कहा करता था कि एक झूंठ को बार-बार बोलो वह सच में परिणित हो सकता है ! भारत में भी कुछ लोग हिटलर के अनुयायी हैं  , वे भी इस विचार शक्ति की नकारात्मक ऊर्जा का दुरूपयोग करते हुए राज्य सत्ता हासिल  करने में कामयाब हो रहे हैं। लेकिन उनका विनाश सुनिश्चित है। अंततोगत्वा सामूहिक जन चेतना की विचार शक्ति ही सहिष्णु और  धर्मनिरपेक्ष उदारवादी-जनवादी व्यवस्था के निमित्त  मानवता का सिंहनाद करेगी।

जो लोग धर्मनिपेक्ष भारत ,समाजवादी भारत ,खुशहाल भारत ,मजबूत भारत चाहते हैं ,उन्हें भीड़तंत्र को लोकतंत्र नहीं मान लेना  चाहिए ,बल्कि अपनी उत्कृष्ट विचार शक्ति की सामूहिक सकारात्मक ऊर्जा के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। इस विचार शक्ति को सिर्फ सार्वजानिक जीवन में ही नहीं बल्कि व्यक्तिगत जीवन को भी  सदुपयोग करके जीवन को कुछ हद तक खुशहाल बनाया जा सकता है। यकीन न हो तो एक प्रयोग करके देखें ! सुबह से दोपहर तक झूंठ-मूठ ही सही रोज खुश रहने का नाटक करें ,आप पाएंगे कि  दोपहर बाद कोई आप को दुखी नहीं कर सकता ! श्रीराम तिवारी :-