सोमवार, 23 मई 2016

'सनातन धर्म' एक अद्वतीय वैज्ञानिक जीवन दर्शन है।



यह एक वैज्ञानिक तथ्य है कि मनुष्य की ' विचार शक्ति' की महत्ता सर्वोपरि है। इसके दुरूपयोग से यदि इंसान हैवान या शैतान बन सकता है ,तो इसके सदुपयोग से इंसान दुनिया में इंसानियत का झंडा बुलंद कर सकता है। निसन्देह इस तथ्य की वैज्ञानिक स्थापना का श्रेय वैदिक मन्त्र दृष्टा ऋषियों को ही जाता है। सबसे पहले इन्होंने   ही  यह जाना कि मनुष्य अपने अवचेतन मन की वृत्तियों को पुन्जीभूत करके अन्य प्राणियों पर  काबू कर सकता है। भले ही इन ऋषियों ने 'विचार' और पदार्थ के उचित संयोग को 'यज्ञ'कहा हो,उससे उतपन्न ऊर्जा को दैवीय प्रसाद माना हो ,किन्तु यह परमसत्य है कि वैदिक ऋषियोंने ही सबसे पहले यह जानाकि वैचारिक ऊर्जा के द्वारा प्राकृतिक तत्वों के स्वभाव को और प्राणिमात्र के व्यवहार को  बदला जा सकता है।आर्य ऋषियों की इन खोजों को यदि तत्तकालीन कबीलाई मानवीय जीवन की आचार संहिता से नत्थी करदें तो वह 'वैदिक धर्म'का आधार कहा जा सकता है। जिसे कुछ लोग 'हिन्दू धर्म' कहते हैं,वह किसी एक व्यक्ति का 'इल्हाम'या 'बोध'नहीं है।और  यह किसी बर्बर कौम या यायावर कुटुंब-कबीले का हिंसक 'चाल -चरित-चेहरा' नहीं है।

वास्तव में यह तो एक सनातन परम्परा है। यह वैदिक दर्शन तो डार्विन के विकासवादी सिद्धान्त की तर्ज पर आर्यों - भारतीयों के वैज्ञानिक क्रमिक विकास को ही प्रस्तुत करता है। अद्वतीय वेदांत दर्शन के रूप में यह अन्य पंथ ,दर्शन,मजहब और आस्थाओं से अलहदा है। चूँकि यह क्रमिक विकास की लंबी परम्परा याने सनातन  से है इसलिए इसे 'सनातन धर्म' कहा जाता है । मेरा दावा है कि यह सनातन धर्म  एक अद्वतीय वैज्ञानिक जीवन दर्शन है।इसलिए यह न तो मार्क्स के शब्दों में 'अफीम 'है ,और न ही यह साम्यवाद के नजरिये से इसे अमानवीय कहा जा  सकता है। भारतीय उपमहाद्वीप के कुछ तथाकथित अवैदिक मत-पन्थ -दर्शन  भी केवल कुछ खास व्यक्तियों की निजी 'अहमन्यता ' का परिणाम हैं। इनमें से किसी ने  कुछ भी नया नहीं कहा। नए धर्म, पन्थ-दर्शन के नाम पर मनुष्य मात्र के समक्ष जो कुछ परोसा गया वह केवल शब्दों की बाजीगरी मात्र है। वेदों या सनातन धर्म से बाहर जो कुछ भी कहा गया है ,वह सब वैदिक वाङ्गमय में पहले से ही मौजूद था। सम्भवतः आदि शंकराचार्य ने यही सिद्ध करके अपनी 'आध्यात्मिक दिग्विजय'के झंडे सारे भारतीय उपमहाद्वीप में गाड़े होंगे ।

 चूँकि प्रकृति ,पदार्थ और चेतना के साहचर्य की महत्ता स्थापित करने वाले तथा  प्रकृति को मनुष्य के अनुकूल बनाने वाले वैदिक मन्त्रों की सर्जना में कहीं कोई दैवीय चमत्कार नहीं है। वेदमंत्रों ,उपनिषद सूत्रों ,आरण्यक-श्लोकों ,ब्राह्मण संहिताओं में कहीं किसी तरह की कोई अंध आस्थाके निशान मौजूद नहीं हैं। चारों वेदों ,तमाम उपनिषदों और वेदांत दर्शन में कहीं भी अमानवीयता या अवैज्ञानिकता नहीं हैं। वैदिक वाङ्गमय में पाषणयुग से लेकर पूर्व वैदिक काल तक की हजारों साल की लंबी आध्यात्मिक यात्रा का क्रमिक विकास दृष्टव्य है। वेशक पुराणों में बहुत घपला है किन्तु वेदांत दर्शन में तो  विशुद्ध मानवीय दर्शन और परा -मनोविज्ञान का ही पसारा है। मूलतः वेदांत दर्शन को ही समग्र हिन्दू धर्म  का सारतत्व कहा जा सकता है। कालांतर में रघुवंश ,यदुवंश और कुरुवंश जैसे सामन्तों की कुलीनता ने भी मानवीय मूल्यों के झंडे गाड़े हैं। यदि हरिश्चंद्र-तारामती का यह सब मिथ है

इस प्रक्रिया का आस्तिकता या नास्तिकता से कोई वास्ता नहीं है ।धर्म-मजहब ,ईश्वर-आत्मा से भी इसका कोई सरोकार नहीं है। यह मानसिक संवेदनाओं की ऊर्जा का उत्सर्जन है। और उसकी मशक्क्त का बहिर्जगत में प्राकट्य है। प्रायः हर जागरूक मनुष्य यह जानता है कि यदि वह अपने विचारों के संकेद्रण पर ध्यान दे तो उसके  विचार ही शब्द बन जाते हैं। मनुष्य यदि उन शब्दों पर ध्यान दे तो वे कर्म बन सकते हैं। याने कर्म का कारण शब्द है और शब्द का कारण 'विचार' है और 'विचार'का कारण मानव मस्तिष्क है।  विचार शक्ति से ही दुनिया में वैज्ञानिक क्रांति हुई है। विचार शक्ति से ही राजनैतिक -सामाजिक -सांस्कृतिक क्रांतियाँ सम्पन्न हुईं  हैं।  तमाम जेहादियों -धर्मांध पाखंडियोंने केवल और केवल  भ्रान्तियाँ भी उतपन्न कीं हैं। हिन्दू धर्म कोई मत-पंथ या मजहब नहीं है बल्कि एक वैज्ञानिक जीवन दर्शन है अपौरुषेय है।

विचार शक्ति का सिद्धांत जब नकारात्मक संदर्भ में सही हो सकता है तो सकारात्मक अर्थ में सही क्यों नहीं होगा ? बीसवीं शताब्दी के नाजीवादी -फासीवादी हिटलर का मंत्री गोयबल्स कहा करता था कि एक झूंठ को बार-बार बोलो वह सच में परिणित हो सकता है ! भारत में भी कुछ लोग हिटलर के अनुयायी हैं  , वे भी इस विचार शक्ति की नकारात्मक ऊर्जा का दुरूपयोग करते हुए राज्य सत्ता हासिल  करने में कामयाब हो रहे हैं। लेकिन उनका विनाश सुनिश्चित है। अंततोगत्वा सामूहिक जन चेतना की विचार शक्ति ही सहिष्णु और  धर्मनिरपेक्ष उदारवादी-जनवादी व्यवस्था के निमित्त  मानवता का सिंहनाद करेगी।

जो लोग धर्मनिपेक्ष भारत ,समाजवादी भारत ,खुशहाल भारत ,मजबूत भारत चाहते हैं ,उन्हें भीड़तंत्र को लोकतंत्र नहीं मान लेना  चाहिए ,बल्कि अपनी उत्कृष्ट विचार शक्ति की सामूहिक सकारात्मक ऊर्जा के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। इस विचार शक्ति को सिर्फ सार्वजानिक जीवन में ही नहीं बल्कि व्यक्तिगत जीवन को भी  सदुपयोग करके जीवन को कुछ हद तक खुशहाल बनाया जा सकता है। यकीन न हो तो एक प्रयोग करके देखें ! सुबह से दोपहर तक झूंठ-मूठ ही सही रोज खुश रहने का नाटक करें ,आप पाएंगे कि  दोपहर बाद कोई आप को दुखी नहीं कर सकता ! श्रीराम तिवारी :- 

मंगलवार, 10 मई 2016

मल्टीनेशनल के घोर समर्थक मोदी जी और जेटली जी पतंजलि का साथ कैसे देंगे ?




  लगभग ७-८ साल पहले जब पतंजलि ओषधि में मानव हड्डी पाई गई थी ,तबसे मैंने स्वामी रामदेव के खिलाफ खूब लिखा था। वह सिलसिला  अब  भी ज़ारी है। विगत  लोक सभा चुनावों के ठीक पहले स्वामी रामदेव का नेता नुमा  स्वांग रामलीला मैदान पर सबने देखा। रामदेव का अण्णा जैसा ही  धरना आंदोलन -ड्रामा और स्त्रीवेश में मैदान छोड़कर भागना उनके समर्थकों को भी पसंद नहीं आया। कालेधन और भृष्टाचार के खिुलाफ रामदेव लगातार १० साल से भाषणबाजी करते  रहे हैं। लेकिन जबसे एनडीए सरकार बनी और मोदी जी का राजतिलक हुआ है ,रामदेव जी कालेधन और भृष्टाचार के सवाल पर मुँह में दही जमाये बैठे हैं। ऐंसा आभासित होता है कि बाबा रामदेव को यह बृह्म ज्ञान हो गया है कि उनका योगबल रुपी  बृह्मबाण मोदी जी के काम आकर बेअसर हो चुका है। रामदेव के तरकश में अब पतंजलि संसथान का तीर ही शेष बचा है। इसलिए आजकल वे  पतंजलि के विज्ञापन  में जुट गए हैं। पतंजलि उत्पादों के विस्तार में भी  बाबा  जी जान से जुटे हैं। शायद उन्हें इल्हाम हो चुका है कि केवल  शारीरिक कौशल या कसरत से अपनी महिमा को अक्षुण नहीं रखा जा सकता ! देश की आवाम को सस्ते और  वैश्विक उत्पाद भी उपलब्ध कराने  होंगे।

हालाँकि मुझे उनके उत्पादों या उनके 'योग' से कोई लगाव नहीं है। जो योगासन रामदेव सिखाते हैं वे बचपन में हमारे गाँव के प्रायमरी स्कूल में सिखाए जाते थे। और जाहिर है कि  इस विषय  में हमारे गाँव के तत्कालीन युवा स्वामी रामदेव से ज्यादा आसन और पैंतरे जानते थे। चूँकि  मैंने स्वयं खेतों में नंगे पैर हल हाँका  है। नीलामी के जंगलों में लकड़ी  भी काटी  है। और  पढाई के दौर में सड़कों के लिए खन्तियां  भी खोदी हैं। पत्थर भी तोड़े हैं ।स्वामी  रामदेव  ने यह सब किया होगा इसमें संदेह है।  अब से ५०-६० साल पहले प्रायः हर गाँव -कस्बे में एक अदद अखाडा जरूर हुआ करता था। अब भी गाँवों कस्बों में कहीं-कहीं उनके चिन्ह बाकी हैं। जहाँ तक पतंजलि उत्पादों के सेवन और खरीदने का प्रश्न है तो मुझे पतंजलि के किसी उत्पाद में कोई रूचि नहीं। दरसल  मुझे उनके उत्पादों की जरुरत ही नहीं। वैसे भी हमने अपनी जरूरतों को सीमित कर रखा है। डाबर, हो या वैद्द्यनाथ या पतंजलि - आयुर्वेदिक ,हौम्योपैथिक दवाइयों पर मुझे कोई भरोसा नहीं। लेकिन जिन  मल्टीनेशनल कम्पनियों  के खिलाफ संघर्ष करते हुए  मेरी जिंदगी गुजर गयी ,यदि उन्हें  कोई वास्तव में  चुनौती दे रहा है  ,तो मेरा राष्ट्रीय  कर्तव्य है कि  मैं स्वामी रामदेव और पतंजलि का साथ दूँ !

चूँकि  मल्टीनेशनल कम्पनियों ने भारत का बाजार कैप्चर कर  रखा है और  पतंजलि उत्पाद मल्टीनेशनल  कम्पनियों के उत्पादों को चुनौती दे रहे हैं।  इसलिए  न चाहते हुए भी  मैं अब  बाबा के इस वैश्विक व्यापार का समर्थन करता हूँ।  बशर्ते स्वामी रामदेव और उनका पतंजलि संसथान अपने उत्पादों की मानक गुणवत्ता का नियमन करे। यदि स्वामी रामदेव और उनका पतंजलि योग संसथान भारतीय संविधान के दायरे में काम करे , यदि वे  कर्मचारियों,मजदूरों के वेतन ,भत्ते ,पीएफ ,चिकित्सा सुविधा और तद्नुरूप अवकाश के प्रावधानों का पालन करें  ,यदि स्वामी रामदेव और पतंजलि  किसी पूंजीवादी पार्टी को सत्ता में बिठाने का टूल्स न बने और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों का आदर करें तो मल्टीनेशनल कम्पनीज बनाम पतंजलि की प्रतिस्पर्धा में मैं स्वामी रामदेव और पतंजलि का ही साथ दूंगा !  जिन्हे मालूम है कि स्वामी रामदेव और उनका पतंजलि अब एमएनसीज  के निशाने पर हैं।  जो भी  सच्चे क्रांतिकारी और वतनपरस्त हैं  वे भी रामदेव  और पतंजलि का साथ देंगे। जो भी  इस विमर्श में पतंजलि के खिलाफ होगा वो मल्टीनेशनल कम्पनियों का समर्थक माना जाएगा !  मल्टीनेशनल के हाथों लुटने से  बेहतर है बाबा रामदेव के हाथों लूट जाना। क्योंकि बाबा जो कमाएगा वह साथ नहीं ले जाएगा.। सब यहीं धरा रह जायेगा और देश के कम आयेगा !

 यह कबीले गौर हैं कि पतंजलि बनाम मल्टीनेशनल की प्रतिस्पर्धा में  मोदी सरकार का रुख कैसा रहेगा ? क्योंकि  मोदी जी और  जेटली जी  तो मल्टीनेशनल के  घोषित खासम खास हैं। वे पतंजलि का साथ कैसे देंगे ?  यदि वे स्वामी रामदेव का साथ देंगे तो मल्टीनेशनल कम्पनियों द्वारा  सत्ता से उखड दिए जाएंगे। और यदि स्वामी रामदेव का साथ नहीं देते तो बाबा के वोट बैंक से महरूम होना पडेगा !  उनके लिए इधर कुआँ  -उधर खाई है !

\श्रीराम तिवारी


हिंदुत्व वादी भारत के असल नारे-Dr S.N.Subbarav,,,[ Nayee Duniya se sabhaar]



आधुनिक युवाओं को डॉ एस एन सुब्बाराव के बारे में शायद ही  कुछ मालूम हो ,किन्तु सामाजिक कार्यकरताओं और अध्येता- प्रबुद्ध जनों को उनके बारे में बहुत कुछ मालूम है। डॉ सुब्बाराव वरिष्ठ गांधीवादी फिलॉस्फर और ख्यातनाम सामाजिक कार्यकर्ता हैं। प्रसिद्धि से दूर रहकर उन्होंने विगत शताब्दी के सातवें-आठवें दशक में चंबल के बीहड़ों को और बुंदेलखंड  के घने जंगलों को डाकुओं से मुक्त कराया था। तब  दुर्दांत डाकुओं के आतंक से आम जनता बहुत पीड़ित थी।डॉ सुब्बाराव ने उन खूँखार डाकुओं  का आत्म समर्पण करवाया। उन्होंने मध्यप्रदेश ,छ्ग यूपी और राजस्थान को डाकू समस्या से मुक्ति  दिलाई। वे महात्मा गाँधी की पत्नी कस्तूरबा गाँधी से संबंधित कार्यक्रम में शिरकत करने इंदौर आये । वे गांधी रिसर्च फाउंडेशन से भी वास्ता रखते हैं। इस अवसर पर इंदौर में पत्रकारों के सवालों का जबाब देते हुए डॉ सुब्बाराव ने अपने कुछ महत्वपूर्ण विचार रखे। धर्म-अध्यात्म और साइंस को लेकर उन्होंने अपनी  पृथक  परिभाषा प्रस्तुत की। वेशक जो लोग किसी खास विचारधारा को अंतिम सत्य मानते हैं ,वे  डॉ एस एन सुब्बाराव से शायद ही सहमत होंगे !

विज्ञान और साइंस की तुलना पर और भौतिकवादी बनाम अध्यात्मवादी दर्शन की तुलना पर डॉ सुब्बाराव ने फरमाया ''साइंस  और भौतिकवादी दर्शन की अपनी सीमाएँ हैं ,किन्तु अध्यात्म-दर्शन का दायरा बहुत  व्यापक है। दुनिया के शीर्ष वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन स्वयं कहा करते थे कि विज्ञान के जरिये बीमार मनुष्य को स्वस्थ तो किया जा सकता है ,किन्तु हम अभी तक कोई ऐंसा इन्जेकशन  नहीं बना सके जो  किसी बेईमान आदमी को ईमानदार बना दे ! इसके लिए तो हमें अध्यात्म के तहत  ही अनुसन्धान करना होगा ''

'भारत माता की जय ' और देशभक्ति बनाम देशद्रोह  के विमर्श को उन्होंने मीडिया प्रायोजित बताया। उन्होंने कहा ''साइंस ने दुनिया की भौगोलिक दूरी तो घटा दी किन्तु दिलों की दूरियाँ कम करने मे उसकी भूमिका क्या  है? '' ८८ साल के सीनियर गांधीवादी फिलॉस्फर एस एन  सुब्बाराव इस उम्र में  भी अपने तमाम काम खुद ही करते हैं।  अतयन्त प्रतिभावान -ऊर्जावान सुब्बाराव आगे कहते हैं ''वंदे  मातरम ,भारत माता की जय और अन्य  नारे तो गुलामी के दौर में कांग्रेस के अहिंसात्मक  हथियार हुआ करते थे। जबकि शहीद  भगतसिंह,  चन्द्रशेखर आजाद,सुखदेव ,राजगुरु और हिन्दुस्तान सोसलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी का नारा 'इंकलाब जिंदाबाद हुआ करता था। '' उन्होंने हिंदुत्ववादियों से  व्यंगात्मक लहजे में सवाल किया  कि वे  यदि वास्तव में हिन्दू हैं तो असल हिन्दू वादी  नारे क्यों नहीं लगाते ? जब किसी पत्रकार ने उनसे पूँछा  कि  हिंदुत्व वादी भारत के असल नारे क्या होने चाहिए ? डॉ सुब्बाराव ने कहा '' विश्व का कल्याण हो !जियो और जीने दो ! वसुधैव कुटुम्बकम !सत्य मेवजयते !
  श्रीराम तिवारी !

रविवार, 1 मई 2016

आधुनिक वैज्ञानिक भौतिकवाद और पुरातन मिथ -इतिहास एक दूजे के अन्योन्याश्रित हैं।

प्रायः देखा गया है कि पूँजीवादी - टटपूंजिया -दक्षिणपंथी भाववादी लेखक- पत्रकार और नेता अक्सर साम्यवाद अर्थात मार्क्सवाद पर अक्सर  हमला करते रहते हैं। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का तातपर्य यह नहीं कि  कमजोर वर्गों की आवाज को दबाएँ, और भृष्ट लुटेरों की चरण वंदना करते रहें ! प्रायः यह भी  देखा गया है कि जो शख्स वामपंथ या कम्युनिज्म की निंदा -आलोचना करता है, वह कार्ल मार्क्स  की शिक्षाओं और उनके द्वारा अन्वेषित  दवन्दात्मक भौतिकवाद का ककहरा भी नहीं जानता । इस तरह का धुर लम्पट- साम्प्रदायिक अथवा टुटपुँजिया व्यक्ति एक ओर तो बड़ी शिद्द्त से दावा करता है कि "दुनिया में कम्युनिज्म खत्म हो रहा है, और भारत में कम्युनिज्म की कोई सम्भावना ही नहीं है ,बगैरह,,,बगैरह,,,," दूसरी ओर वह जेएनयू जैसे तमाम विश्वविद्यालयों  के सभ्य सुशिक्षित -प्रगतिशील  प्रोफेसरों और छात्रों को जन्मजात  वामपंथी ही मान रहा है।  जिन्हे वर्तमान कारपोरेट कम्पनी कल्चर का पीलिया रोग हो चुका है ,ऐसे  लम्पट  युवाओं को जेएनयू का छात्र नेता कन्हैया कुमार  देशद्रोही नजर आता है। क्या  इन अर्धविक्षिप्त  युवाओं को  विजय माल्या ,ललित मोदी , जैसे  कालेधन वाले  भॄस्ट अफसर और  बेईमान पूँजीपति   देशभक्त नजर आते हैं ? वाह क्या अदा है ? संघ की नजर में कामरेड कन्हैया  देशद्रोही है और व्यापम काण्ड  वाले या भगोड़े  विजय माल्या जैसे लोग देशभक्त हैं।

अक्सर कुछ सीधे सादे अर्ध शिक्षित कैरियरिस्ट युवा- छात्र  किसी जुमलेबाज नेता की झांसेबाजी को ठीक से समझ  नहीं पाते। उन्हें नहीं मालूम कि एक  खास निहित स्वार्थी योजना के तहत  पूँजीवादी मीडिया  द्वारा एक खास रंग की राजनीती को  हिन्दू युवाओं के  ललाट पर उत्कीर्ण किया जा रहा है। कुछ  खास प्रतिगामी नीतियों को इतिहास के कूड़े से उठाकर महिमा मण्डित किया जा रहा है। सिर्फ एक खास नेता का ही गुणगान प्रायोजित किया जा रहा है। कोशिश की जा रही  है कि  सिर्फ एक के 'मन की बात ' ही सुनी जाए। क्या यह नव  - फासीवाद का आगाज नहीं है ? देश में यदि लोकतंत्र है तो सभी के मन की बात सुनी जानी चाहिए

आधुनिक युवा  तकनीकी रूप से और बिजनेस मैनेजमेंट या बाजारीकरण की नजर में तो काबिलियत रखते हैं किन्तु उन्हें विश्व व्यापी सनातन संघर्षों और उनके ऐतिहासिक दवंदों की खबर नहीं है। वे यह नहीं जानते कि आधुनिक साइंस ने दुनिया में केवल वैज्ञानिक क्रांति ही नहीं की है । बल्कि यूरोपियन  रेनेसा,फ्रेंच रेवोलुशन , अमेरिकी क्रांति , सोवियत अक्टूबर क्रांति ,चीनी सर्वहारा क्रांति के विश्व व्यापी असर की उन्हें कोई जानकारी  नहीं है । आधुनिक तकनीकी दक्षता प्राप्त युवाओं को नहीं मालूम कि यह आधुनिक  संचार क्रांति या वैज्ञानिक समग्र क्रांति जिस साइंस की देंन  है । उसी  साइंस ने दुनिया में  सामंतवादी- शोषणकारी  राजनीति को पलटने का  काम  भी किया  है। विश्व व्यापी साइंस की खोजों ने ही यूरोप में पहले -पहले पूंजीवाद पर प्रजातंत्र को बढ़त दिलाई। और 'चर्च' की प्रभुसत्ता को नियंत्रित  करने  का काम  भी किया। दुनिया बाहर के गुलाम राष्ट्रों-पूर्व के  उपनिवेशों को मुक्त कराने में इस साइंस की भूमिका प्रमुख रही है। साइंस ने राजनैतिक -आर्थिक -सामाजिक  क्षेत्र में जो भी  क्रांतिकारी उलटफेर किये हैं ,वे ही  मार्क्सवाद या साम्यवाद के उत्प्रेरक हैं। इसी समग्र वैश्विक  क्रांतिकारी दर्शन ने  दुनिया  को क्रांति की नयी राह दिखाई है । वैज्ञानिक  भौतिकवाद ही साम्यवादी  दर्शन का मेरुदण्ड है। आधुनिक मोबाइल धारक युवाओं को यह ज्ञान भी  होना चाहिए। 

मार्क्स ,एंगेल्स तो साम्य वादी अन्वेषण के  महज निमित्त मात्र थे। यह व्यवस्था परिवर्तन का सिद्धांत अटल है ,यह हर देश में हर काल में अलग-अलग ढंग से होता ही रहता है। वक्त आने पर  भारत में भी इसे  होना ही है। लेकिन किस देश में -कब होगा - कैसे होगा ? यह उस देश के युवाओं की तासीर पर निर्भर है । क्रांति कब हो - कैसे  हो ? यह सम्बंधित देश की युवा सोच पर निर्भर है। क्रांति की प्रक्रिया को जान लेना ही मार्क्सवादी दर्शन का वैदिक  ब्रह्मज्ञान है। भारत में यह ज्ञान सर्वप्रथम मान्वेंद्रनाथ राय ,रजनिपामदत्त ,लोकमान्य  तिलक  , मुजफ्फर अहमद , शहीद भगतसिंह इत्यादि महान  क्रांतिकारियों  को  हुआ था। उन्होंने भारत में वोल्शिविक क्रांति के सपने देखे थे। किन्तु धूर्त अंग्रेजों ने भारत में जाति -धर्म के आधार पर एक से अधिक 'राष्ट्रीयताओं'को पॉपुलर किया। ताकि भारत में सर्वहारा क्रांति को रोक जा सके।  इसीलिये उन्होंने गांधी जी के 'अहिंसा' सिद्धांत को सराहा।  और और कांग्रेस -मुस्लिम लीग के  अलगाववाद को खास तवज्जो दी।

अंग्रेजों ने मुस्लिम लीग व जिन्ना को पाकिस्तान के लिए उकसाया। सिखों को खालिस्तान के लिए उकसाया। तमिलों -तेलगु और अन्य गैर हिंदी -भाषा -भाषियों को उनके अलग-अलग राष्ट्रों के लिए उकसाया। अंग्रेजों ने ही दलितों और उनके नेताओं को जातीय आधार पर पृथक निर्वाचन के लिए उकसाया। जिसे महात्मा गांधी ने बड़ी सूझ-बूझ और मेहनत  से  'पूना पेक्ट ' के तहत आरक्षण व्यवस्था के रूप में लागू करवाया ।यदि आज गांधी जी और बाबा साहिब अम्बेडकर होते तो पटेलों-जाटों के तेवर देखकर अपना माथा कूट लेते।

 अंग्रेजों ने जाते-जाते ,कश्मीर,हैदराबाद,भोपाल,जूनागढ़ और अन्य कई राजाओं को 'भारत संघ' में शामिल होने से रोका।  उन्होंने उन्हें  देशी राजाओं को स्वतंत्र रहने के लिए उकसाया !इस अवसर पर कांग्रेस के अंदर जो अधिकांश लेफ्टिस्ट  ही थे उन्होंने भारत को एकजुट करने में सरदार पटेल और नेहरू का भरपूर साथ दिया। देश विभाजन के समय  हैदराबाद  के निजाम और उसके रजाकरों ने रॉयल सीमा औरआंध्र में  जितने कम्युनिस्ट मरवाए उतने तो पाकिस्तान में हिन्दू भी नहीं मारे गए होंगे।  ठीक इसी समय हिन्दू महा सभा के लोग भारत में धर्मनिरपेक्षता के नाम  पर गांधी जी को  निपटाने के षड्यंत्र रच रहे थे। जिसकी परिणीति नाथूराम गोडसे के हाथों गांधी जी की हत्या के रूप में हुई।

अच्छे -खासे पढ़े लिखे लोग भी कभी-कभी आर्थिक -राजनैतिक-दर्शन -सिद्धांतों को जाने बिना घोर फासीवादी संगठनों के प्रभाव में आ जाते हैं। इसी तरह राजनीतिक विश्लेषण क्षमता से विमुख कुछ प्रगतिशील लोग भी धर्मनिरपेक्षता और आतंकवाद जैसे मुद्दों पर भटक जाया करते हैं।  दक्षिणपंथी संकीर्णतावाद के प्रतिबिम्ब जैसे ही कुछ  वामपंथी भी वैचारिक  संकीर्णतावाद की खाई में जा गिरते हैं। पर्याप्त अध्यन के अभाव में संघ परिवार का बड़े से बड़ा प्रवक्ता भी मार्क्सवादी  नीति निदेशक सिद्धांतों से  अंजान ही रहता है। क्योंकि वह मार्क्सवाद  के प्रति सहज ही नकारात्मक भाव में होता है, इसलिए उससे किसी किस्म के विवेकपूर्ण विश्लेषण की उम्मीद नहीं की जा सकती। इसी तरह अधिकांश मार्क्सवादी भी सर्वहारा -अंतर्राष्ट्रीयतावाद के प्रचण्ड चेता तो हो सकते हैं किन्तु उन्हें भावजगत  दर्शन के अध्यन में कोई रूचि नहीं होती। वे गीता-रामायण ,बाइबिल.कुरआन इत्यादि जैसे भाववादी साहित्य को समग्र रूप से पढ़ने -समझने की कोई खास चेष्टा नहीं करते। चूँकि  उन्होंने पहले से ही ठान रखा है कि  ''यह  सब बकवास है , पाखंडपूर्ण मिथकीय कूड़ा करकट है '' ! इसी तरह अन्य मजहबी ग्रंथों को पढ़े बिना  या  ठीक से जाने बिना उसके विमर्श में उलझकर ये लोग फिसड्डी सावित होते  रहते हैं।

इसीलिये संसदीय लोकतंत्र के त्रुटिपूर्ण चुनावों में असंगठित क्षेत्र की  बहुसंखयक जनता और अल्पसंख्य्क समूह तीसरे विकल्प या वामपंथ  की जीत को  संदेह की नजर से देखती है। लोक सभा या विधान सभा चुनावों के समय  गरीब- मजदूर-किसान जाति -धर्म -मजहब के पांतों में बट जाता है। और गफलत में अपने वर्ग शत्रु को ही वोट दे देता है। और  उसकी रहनुमाई के लिए तैयार सर्वहारा के हरावल दस्ते को हार का मुँह देखना पड़ता  है। अच्छे दिनों के भारत में यही सब चल  रहा है।मानव इतिहास के हर एक दौर में कुछ मुठ्ठी भर लोग  ही होते रहे हैं जो  हर किस्म के शोषण-उत्पीड़न के खिलाफ संगठित संघर्ष की रहनुमाई  किया करते रहे हैं। वे समाज और राष्ट्र के  सकारात्मक निर्माण में भी निष्णांत हुआ करते  हैं। ऐंसे उदात्त चरित्र के बलिदानी लोगों से ही  महाकाव्यों के धीरोदात्त चरित्र गढे  जाते रहे हैं। कालांतर में ,इन्हे ही देव ,इन्हें ही अवतारा ,इनको ही 'नायक' कहा जाता है। आधुनिक वैज्ञानिक भौतिकवाद और पुरातन मिथ -इतिहास एक दूजे के अन्योन्याश्रित हैं।

 आधुनिक विश्व क्रांतिकारी द्वन्दात्मक -भौतिकवादी विचार के प्रणेताओं ने उनके प्रगतिशील वामपंथी-साहित्य को जो   सम्मान दिया है ,वही  सम्मान  सामन्तयुगींन रीतिकालीन सौंदर्य साहित्य को भी सम्मान मिलना चाहिए। यह साम्यवादी दर्शन उतना ही पुरातन  है जितने की महाकाव्य। इसलिए दोनों ही समान रूप  से आदरणीय ,पठनीय और अवलोकनीय  है। भाववादी  महाकाव्य  साहित्य सृजन  न केवल भव्य  है अपितु निरंतर अध्यन  योग्य  भी है।  उसका अनुशीलन  प्रतिक्रांतिकारी नहीं  है अपितु किसी भी क्रांति चेतना के लिए यह जीवंत साहित्य की तरह  ही सर्वकालिक है। स्वामी विवेकानंद ,स्वामी श्रद्धानन्द,लाला लाजपत राय , काजी नजरूल इस्लाम ,रवींद्रनाथ टेगोर,अरविंदो ,ईएमएस नम्बूदरीपाद ,श्रीपाद डांगे इत्यादि ने भारतीय  महाकाव्यों का गहन अध्यन  किया था। इन सभी को यूरोप की वैज्ञानिक और भौतिक क्रांतियों का भी पर्याप्त  ज्ञान था। यही वजह है कि निर्विवाद रूप से  ये सभी  स्वतंत्र भारत के पथप्रदर्शक माने जाते हैं। वैसे भी  कुछ अपवादों  - क्षेपकों को छोड़कर अधिकांश भाववादी भारतीय साहित्य -खास तौर से पाली,प्राकृत ,अपभ्रंस ,संस्कृत -वांग्मय एवं  दर्शन अक्षरशः वैज्ञानिक आधार पर भी पर्याप्त अनुकरणीय है। मानवीय तो वह है ही ।भले ही यह  तमाम प्राचीन महाकाव्य सृजन नितांत अतिश्योक्तिपूर्ण  गप्पों का ही भण्डार ही  क्यों न हो किन्तु बन्धुता, परोपकार -न्यायप्रियता ,अपरिग्रह, उत्सर्ग ,सत्य -शील सृजन और  अन्य सनातन मूल्यों की अमूल्य धरोहरके रूप में ये  'कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो' के सिद्धांतों जैसे ही सर्वकालिक हैं।

महाभारत और उसके भीष्म पर्व में सन्निहित भगवद्गीता तो विश्व में बेजोड़ हैं। कुछ प्रगतिशील लोग इस मिथकीय साहित्य को बिना पढ़े ही हेय दॄष्टि से देखते हैं। इसी तरह अधिकांश  भाववादी और अंधश्रद्धा वाले मजहबी साम्प्रदायिक लोग भी 'दास केपिटल ' मार्क्सवाद या 'कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो'  इत्यादि को पढ़े बिना ही कम्युनिज्म पर टीका टिप्पणी करते रहते हैं। ये तथाकथित धार्मिक और भाववादी लोग अपने धर्म -पंथ के मूल्यों को जाने बिना और  इन गर्न्थो का सांगोपांग अध्यन किये  बिना ही उन की गलत सलत व्याख्या करते रहते हैं। वे अपने धार्मिक प्रयोजन के बहाने  इस शानदार पुरातन धरोहर रुपी अध्यात्म साहित्य को कर्म-कांड  धर्म-मजहब के बहाने  उसका बेजा दुरूपयोग करते रहते हैं।

वेशक वेद ,आरण्यक ,गीता इत्यादि ग्रन्थ  भी मूलतः भौतिकतावादी ही हैं। इनमें निहित भाववाद सिर्फ व्यष्टि चेतना के निमित्त ही है। सिर्फ रामायण महाभारत या अभिज्ञान शाकुन्तलम ही नहीं बल्कि पंचतंत्र-हितोपदेश जैसा लोक  साहित्य  भी केवल मिथ या कालकवलित सृजन नहीं है।  अजन्ता ,एलोरा ,खजुराहो,साँची -सारनाथ और  विशाल भारत में यत्र-तत्र -सर्वत्र विखरी पडी  विराट पुरातन  शिल्प  धरोहर में कुछ भी अवैज्ञानिक नहीं है। बिना  गणतीय सूत्रों ,प्रमेयों और भौतिक ज्ञान  के अतीत का यह सृजन सम्भव  भी नहीं था । अतः यह  पुरातन शिल्प ,पौराणिक -मिथकीय सृजन और साहित्य भी आधुनिक प्रगतिशील वैज्ञानिक खोजों की ही तरह न केवल ज्ञेय  और गम्य है बल्कि  सार्वदेशिक और सार्वकालिक  हैं।


  श्रीराम तिवारी !