शुक्रवार, 16 दिसंबर 2016

हिंदी भाषी जनता रामेदव के पतंजलि उत्पादों की ग्राहक मात्र रह गयी है।

 जिन लोगों को बाबा रामदेव से योग सीखने और पतंजलि उत्पादों के सेवन से स्वष्थ जीवन जीने की प्रेरणा मिली उन्हें बधाई! लेकिन मैं बाबा रामदेव से अनेक मामलों में सहमत नहीं हूँ। बाबा रामदेव  एक 'आँख मारते' हुए जब दुरंगी राजनैतिक शब्दावली का प्रयोग करते हैं ,जब मोदी सरकार का बचाव करते हैं और जब विपक्ष की लानत-मलानत करते हैं तो उनका यह  कदाचरण महर्षि पतंजलिकी 'योगविद्या' से मेल नहीं खाता ! जहाँ तक रामदेवके द्वारा विश्वव्यापी 'योग' प्रचार का प्रश्न है तो इससे भारत के ५०% नंगे-भूंखे सर्वहारा वर्ग के लिए कोई मायने ही नहीं हैं।  व्यक्तिगत रूपसे मैं जन्मजात वंशानुगत योगी हूँ।मैंने रामदेव से कुछ नहीं  सीखा ,बल्कि  वंश परम्परा से ही उत्तराधिकार में मुझे राज योग ,सदाचार,और स्वाध्याय की शिक्षा दी गयी थी। हमें बचपन से ही घुट्टी पिलाई गयी कि 'नहीं ज्ञानेन सदृशं पवित्र महि विद्द्ते '! हमारे व्यक्तित्व निर्माण में स्वामी रामदेव का कोई अवदान नहीं है !किन्तु अब स्वामी रामदेव मुझे अच्छे लगने लगे हैं। क्योंकि उनका हृदय परिवर्तन होने लगा है ,उन्होंने आरबीआई के बहाने मोदी सरकार पर ही  निशाना साधा है कि नए नोट गलत नंबरिंग से छापे गए हैं और एक ही नंबर के डबल नोट करोड़ों में छाप डाले हैं। नोटबंदी में हड़बड़ी और हड़बड़ी में गड़बड़ी से मोदी सरकार के पसीने छूट रहे हैं !विपक्ष और कांग्रेस को तो संघ परिवार 'देशद्रोही' समझता है ,किन्तु चुनाव जिताऊ स्वामी रामदेव पर क्या आरोप लगाते हैं यह देखने की बात है ?

१७वीं -१८ वीं सदी के ध्वस्त भारत को गुलाम बनाते हुए, अंग्रजोंने अपने साम्राज्यवादी हितो को ध्यान में रखते हुए सर्वप्रथम मद्रास ,बंगाल,केरल,मुंबई ,दिल्ली ,देहरादून,चंडीगढ़ , पंजाब में 'मैकाले पध्दति' से शिक्षा प्रारम्भ की  थी। इसीलिये आजादी के बाद अधिकांस उच्चतर नौकरियां -पूर्वी,पष्चिमी और दक्षिण भारत के ही अंग्रेजीदां लोगों को  मिलती रहीं। कालांतर में नव आरक्षित  वर्ग भी इस अंग्रेजीदां नौकरशाही और राजनीतिक सत्ता का  हिस्सेदार हो गया। लेकिन हिंदी भाषी क्षेत्र -यूपी ,बिहार,राजस्थान,मध्य भारत,बुन्देलखण्ड और विदर्भ इत्यादि की अधिकान्स जनता -आजादी के पहले वाली स्थिति से भी बदतर हालात में धकेल दी गयी। भारत का विशाल हिंदीभाषी भूभाग अपनी खनिजसम्पदा,वन सम्पदा और श्रम शक्ति तो देश को अर्पण करता रहा लेकिन  इस क्षेत्र की आबादी को शिक्षा,स्वास्थ्य ,रोजगार से महरूम रखते हुए या तो भगवान् भरोसे छोड़ दिया गयाअथवा विराट वोट बैंक बना दिया गया।

सामंतकालीन अथवा गुलाम उत्तर भारत में जो लोग वंशानुगत रूप से जल-जंगल और जमीनों पर काबिज थे, आजादीके बाद वही लोग राजनीति और नौकरशाही में घुस गए। आजादी के तुरन्त बाद के बिन्ध्यप्रदेश,मालवा , महाकौशल और बाद के मध्यप्रदेश, छग ,बुन्देलखण्ड और विदर्भ के शासन-प्रशासन में अधिकांस नौकरियों में पंजाबी,मराठी ,मुस्लिम ,सिंधी,बंगाली,मलयाली,तमिल और तेलगु वाले ही थे। उत्तर भारत के हिन्दीभाषी  हिन्दू और खास तौर से अधिकान्स ब्राह्मण परिवारों में श्रीमदभगवदगीता ,दुर्गासप्तशती ,वेद,उपनिषद, रामायण,विवाह पद्धति,अष्टाध्यायी,भागवतपुराण और पतंजलि योगसूत्र जैसी कुछ फटी-पुरानी पुस्तकों को पढ़ने पढ़ाने का चलन था। आजीविका का परंपरागत साधन छीज रहा था और उसके अलावा कोई अन्य विकल्प था ही नहीं। फिर भी वे इस संस्कृत वाङ्ग्मय को छाती से लगाए हुए थे। बीस साल पहले जब 'पतंजलि' आर्थिक साम्राज्य के स्वामी बाबा रामदेव इस हिंदी पूण्य धरा पर प्रकट भये याने  'अवतरित' हुए तो उन्होंने   बेचारे हिंदी भाषियों को ही अपना पहला शिकार बनाया। इससे उनका आर्थिक साम्राज्य तो खूब फला -फूला किन्तु हिंदी भाषी जनता रामेदव के पतंजलि उत्पादों की ग्राहक मात्र रह गयी है। उनके आर्थिक साम्राज्य की अधिकांस नौकरियां भी जाने कहाँ बिल गयीं हैं ? इसलिए उनके तथाकथित आयुर्वेदिक उत्पादों पर मैंने कभी यकीन नहीं किया।

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